Tuesday, 28 March 2017

बाल साहित्य के लिए संकट का समय

बाल साहित्य के लिए संकट का समय



बाल पत्रिका में काम करने के कारण पिछले करीब 20 वर्षों से मैं बाल साहित्य के जुड़ा हूं। 20 वर्षों में पूरी पीढ़ी बदल जाती है। लिखने वाले बदल जाते हैं, पढ़ने वाले बदल जाते हैं। यहां तक कि बाल साहित्य को लोगों तक पहुंचाने वाले बदल जाते हैं। पिछले 20 वर्षों में दुनिया बदली है, लोगों का देखने का नजरिया बदला है और लोगों के साथ जुड़े बच्चे बदले हैं। बच्चों की प्राथमिकताएं बदली हैं।


आज बाल पत्रिकाओं की दृष्टि से देखें तो यह संकट का समय दिखता है। पहले हर बड़े प्रकाशन संस्थान की अपनी बाल पत्रिकाएं होती थीं और ये संस्थान अपने अन्य प्रकाशन की तरह बाल पत्रिकाओं को भी पूरा सम्मान देती थीं। जैसे टाइम्स आफ इंडिया की पराग, हिन्दुस्तान टाइम्स की नंदन, दिल्ली प्रेस की चंपक, चंदामामा, राजस्थान प्रत्रिका की बालहंस, प्रकाशन विभाग की बाल भारती और दीवान पब्लिकेशंस की नन्हे सम्राट और एकलव्य की चकमक। इनमें चंदामामा और पराग को छोड़कर बाकी अब भी निकल रही हैं। ये अलग बात है कि पाठकों की कमी से सभी जूझ रहे हैं। जब पाठक कम होंगे, तो पत्रिकाओं की छपाई कम होगी। छपाई कम होगी, तो विज्ञापन पर असर पड़ेगा और विज्ञापन कम मिलने से पत्रिका महंगी छपेगी। पत्रिका महंगी छपेंगी तो महंगी बिकेंगी। महंगी बिकेंगी तो जो इनके पाठक बचे हैं, वे ज्यादा कीमत देखकर खरीदने से परहेज कर सकते हैं। इस चक्र को देखकर हम कह सकते हैं कि सच में यह बाल पत्रिकाओं के लिए संकट काल है और इसे संकट से पत्रिकाओं को निकालने के लिए कुछ अतिरिक्त प्रयास की जरूरत है।
आजकल देखने में आ रहा है कि बहुत सी बाल पत्रिकाएं निजी प्रयासों से निकल रही हैं। सरकारी सहायता प्राप्त पत्रिकाएं भी बढ़ रही हैं। पहले बाल पत्रिकाएं, संस्थाएं निकालती थी पर अब इस पुण्य कार्य में निजी लोग भी लगे हुए हैं। कुछ नाम हैं-बाल वाटिका, बाल प्रभा, बाल प्रहरी, बालमन, आदि। पर, यहीं एक परेशानी खड़ी हो जाती है। अपने निजी प्रयास से पत्रिकाएं निकालने वाले कहते हैं कि उनके पास संसाधन तो हैं ही नहीं। वे तो लोगों के लिए, बच्चों के लिए, या कहिए बाल साहित्य की सेवा के लिए पत्रिका का प्रकाशन कर रहे हैं। सीमित संसाधन के कारण वे लेखकों को पारिश्रमिक नहीं दे सकते। जैसे ही यह वाक्य आता है, मतभेद की शुरुआत हो जाती है। लेखक कहता है, पत्रिका निकालने के लिए जो भी खर्च होता है, उसे ये निजी प्रकाशक करते हैं। उनका हाथ खाली तब होता है, जब उन्हें लेखकों को उनका हक देना पड़ता है।
यहां मैं अपनी बात कहूं, तो पहले मैं भी इन निजी प्रयास वाली पत्रिकाओं का विरोधी था। मुझे लगता था कि ये पत्रिकाएं सच में बहाना बनाती हैं। कई बाल साहित्यकारों से मेंरी बात हुई। उन्होंने बताया कि इसके विरोध में वे इन पत्रिकाओं को अब अपनी रचना नहीं देते। कुछ ने कहा कि वे अपनी छपी-छपाई रचना भेज देते हैं क्योंकि संबंध क्यों खराब करना। कुछ लेखक ऐसे हैं, जो प्यार मोहब्बत या कहिए अपने मन से इन पत्रिकाओं से जुड़े हैं वह भी बिना पारिश्रमिक लिए।
अब ऐसा होगा तो ये निजी पत्रिकाएं कहां से अपने लिए सामग्री लाएंगी ? अंत में होगा यही कि ठगे पाठक ही जाएंगे। हो सकता है, उन्हें पुरानी कहानियां पढ़ने को मिले। हो सकता है, चलताऊं मैटर से पत्रिका के पेज भरे जाएं। नामी नामों को न पाकर हो सकता है, पाठक पत्रिका खरीदना बंद कर दे। फिर इससे घाटा अंततः बाल साहित्य को ही होगा।
ये स्व प्रयासों से निकलने वाली पत्रिकाएं मेरी नजर में एक ऐसा सेंटर है, जो बाल साहित्यकारों की नई पौध तैयार करती है। कारण यह है कि जब कोई लिखना शुरू करता है, तो उसे किसी बड़ी पत्रिका में जल्दी स्थान नहीं मिलता और न ही उनकी पुस्तकें तुरंत छपकर बाजार में आ जाती हैं। कुछ लेखक जो बहुत अच्छा लिखते हैं, उन्हें ऐसा मौका मिल जाता है, परंतु अधिकांश को ऐसा मौका नहीं मिलता। ऐसे में बिना मानदेय दिए कहानियों को छापने वाली पत्रिकाएं उनके काम आती हैं। वहां लिख-लिखकर वे निखरते हैं और बाद में बड़ी पत्रिकाओं में छपते हैं। फिर उनकी किताबें भी आती हैं। पर उन्हें सींचने का काम इन बाल पत्रिकाओं द्वारा ही होता है। और इससे अंत में भला बाल साहित्य का ही होता है क्योंकि लेखकों की नई पौध तैयार होती है, जो बाल सहित्य की भूमि की उर्वरता बढ़ाती है।
हां, यहां मैं यह भी कहना चाहूंगा कि निजी प्रयास से निकलने वाली पत्रिकाओं को चाहिए कि वह भी रचनाकारों के श्रम का सम्मान करते हुए कुछ मानदेय देने की हामी भरे। दोनों तरफ से प्रयास होगा, तो यह बाल साहित्य के लिए भी सुखद ही रहेगा।
आजकल एक चलन ज्यादा देख रहा हूं कि कुछ बाल पत्रिकाएं ऐसी हैं जो बड़े गर्व से कहती हैं कि वह बाल साहित्य चर्चा की पत्रिका भी है। ऐसी पत्रिकाओं में बाल कहानियां, कविताएं, बाल साहित्य की समस्याएं, बाल साहित्यकारों के चिंतन और उनके संस्मरण आदि को खूब स्थान मिलता है। ये पत्रिकाएं शादी-ब्याह में बुफे डिनर का तरह दिखती हैं। 10 तरह की सब्जियों की तरह दस कहानियां, 5 तरह की रोटियों की तरह 5 लेख और 10 तरह की मिठाईयों की तरह 10 लेख बाल साहित्य चिंतन पर। जैसे पार्टी में लोग सोचते रह जाते हैं कि अब क्या खाएं और क्या छोड़ें? इस चक्कर में खाने का मजा ख़राब हो जाता है और पेट भी नहीं भरता है, उसी तरह ऐसी पत्रिका को खरीदने वाले भी सोचते रह जाते हैं कि क्या पढ़ें और छोड़ दें।
अधिकांश बाल पत्रिकाओं के साथ यही समस्या है। वे यही तय नहीं कर पातीं कि उनका पाठक वर्ग क्या है। किसी भी पत्रिका के लिए जरूरी है कि वह अपने लिए पाठक वर्ग तय करे। इसका कारण यह है कि 6 से 10 साल के बच्चे को जो पसंद आयेगा, वो 11 से 14 साल के बच्चों को शायद अच्छा न लगे। अभी एक पत्रिका देखी -चिरैया। इसमें साफ़ लिखा है कि उसका पाठक वर्ग क्या है। मेरा मानना है कि हर पत्रिका को आगे बढ़कर बताना चाहिए कि आखिर वह किसके लिए है और उसका उद्देश्य क्या है।
अगर एक बाल पत्रिका चाहती है कि उसे सच में बाल पाठक मिलें, तो उसे खुद को बालक के लिए सीमित करना होगा। यह नहीं कि बड़े साहित्यकारों को खुद से जोड़ने के लिए बाल पत्रिका में, बाल पाठकों के पृष्ठों पर शोधपरक लेखों को छापिए। बच्चों का शोध लेखों से क्या लेना-देना? ऐसा प्रयास बाल पाठकों को बाल पत्रिकाओं से दूर ही करता है।
बात घूम-फिरकर वहीं आ जाती है कि आखिर बाल साहित्य को आगे बढ़ाने के लिए क्या किया जाए? दरअसल पिछले 10 सालों में भारत में कंप्यूटर का जाल बिछा है। मोबाइल फोन, फोन से ज्यादा टीवी की तरह हो गया है, कंप्यूटर की तरह हो गया है। फोन में आप अपने मनोरंजन के लिए फिल्में रख सकते हैं। जो जानना हो, तुरंत गूगल खोलकर पता कर सकते हैं। विदेशी कहानियां एक क्लिक पर उपलब्ध हैं। किंडर पर आप हजारों लाखों कहानियां जब चाहें, पढ़ सकते हैं। माता-पिता का बच्चों से संवाद कम हुआ है। बच्चे एकाकी भी हो रहे हैं। उनके पास एकांत है, ऐसा समय है जब वह गलत चीजों की तरफ आकर्षित हो सकते हैं। ऐसे में आखिर क्या किया जाए कि बच्चे प्यार से बाल कहानियों की किताबों को और पत्रिकाओं को अपनाएं?
सबसे पहले हमें बच्चों के मन में झांकना होगा। आखिर आज के इस हाईटेक युग में उनकी जरूरतें क्या हैं। वे क्या ऐसा पढ़ें, जो उनकी जिंदगी को बनाने में काम आए। आज का बच्चा वो भोला बच्चा नहीं है, जिसे आप कहें कि बेटा, देखो, आसामान में जो चांद है, वो तुम्हारे मामाजी जी हैं, उन्हें प्रणाम करो। और बच्चा तुरंत प्रणाम कर लेगा। नहीं, आज का बच्चा तुरंत पूछ बैठेगा वो मेरे मामा कैसे हैं।
यहां मैं अपना एक किस्सा सुनाता हूं।
हम हमेशा बच्चों को कहते हैं, आंटी जा रही हैं, टाटा करो। अंकल को बाय बोलो। ऐसे ही एक बार मैं अपने परिवार के साथ मनाली जा रहा था। हम स्टेशन पर खड़े थे। तभी एक ट्रेन चल दी। उसका अंतिम डिब्बा हमारे सामने से गुजरा, तो मैंने आदतन अपने साढ़े तीन साल के बेटे से कहा,--बेटा डिब्बे को बाय कर दो।
पता है, उसका जवाब क्या था? उसने कहा---डिब्बे को बाय क्यों करूं? उसके पास क्या हाथ है, जो वह भी मुझे बाय-बाय करेगा?
आज के बच्चे अपनी उम्र से जल्दी बड़े हो जाते हैं। तो इन बच्चों को प्यार से, आसान शब्दों में, उनके मानसिक और शारीरिक विकास के लिए जरूरी बातें कहानियों में पिरोकर सुनाने की आवश्यकता है। उन्हें फन पार्क में नहीं, प्रकृति के पास ले जाने की ज्यादा जरूरत है। उन्हें अपनी धरती, अपनी प्रकृति की बातें कहानियो में बताने की आवश्यकता है। और यह सब सादे पेजों में नहीं, ढेरों चित्रों और एक्टीविटीज के साथ उन्हें देने की आवश्यकता है। आज पत्रिकाओं को चाहिए कि वे खुद स्कूलों तक अपनी पहुंच बनाएं। बच्चों से डायरेक्ट जुड़ें। उनकी बातों को पत्रिकाओं में स्थान दे।
अंत में इतना ही और कहना चाहूंगा,-----आज के भागमभाग की जिंदगी में जब कक्षा 6 के बच्चों को इंजीनियरिंग की तैयारी के लिए फिटजी जैसे कोचिंग सेंटर में भेजा जाता है, तब उनकी जिंदगी से अपने लिए थोड़ा समय चुराना बाल पत्रिकाओं के लिए बहुत बड़ा कार्य है, और इसमें सफलता या असफलता ही बाल साहित्य के भविष्य को तय करेगा।


(अनिल जायसवाल के विचार जो उन्होंने, 25-3-17 को फगवाड़ा में कमला नेहरू कालेज में कालेज और नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा आयोजित समारोह में व्यक्त किए)         

6 comments:

  1. बहुत ही सुंदर भाई साहब। सन्तुलित चर्चा। समसामयिक चिंतन। कमोबेश अव्यवसायिक पत्रिकाओं की बड़ी सीमाएं तो हैं हीं किन्तु उनका प्रदेय भी कम नहीं।
    मैं आपके विचारों का सम्मान करता हूँ।

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  2. बहुत सुंदर अनिल जी । बालसाहित्य पर इसी प्रकार की गंभीर चर्चा की आवश्यकता है ।

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  3. बालसाहित्य पर गंभीर चर्चा ।

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  4. अच्छा एवं संतुलित लेख। बहुत बढ़िया बात की कि यथासंभव लेखक को उसका सम्मान करते हुए कुछ न कुछ मानदेय अवश्य देना चाहिए।

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