Wednesday 29 March 2017

सुसंस्कृत कौन और गँवार कौन?

सुसंस्कृत कौन और गँवार कौन?


साहित्य में ग्रामीण परिवेश की कई कहानियां प्रायः पढ़ने को मिल जाती हैं। अपवादस्वरूप अधिकतर कहानियां गांव को पिछड़ा दर्शाती हैं। इन कहानियों में अगड़ा शहर होता है। शहरी विकसित, समझदार, शिक्षित, संपन्न और दयालु। ग्रामीण गरीब, पिछड़े हुए, गंवार, अनपढ़, विपन्न और निष्ठुर। ये क्या बात हुई?
कहानियों में बाल जीवन की स्थिति तो और भी हास्यास्पद दर्शाई जाती है। गांव में जो भी समस्याएं हैं उन्हें हल करने के लिए कोई शहरी आता है और उसे हल कर देता है। शहर के बच्चे गर्मियों की छुट्टियों में गांव में आते हैं और गांव के बच्चों को, गांव के बढ़े-बूढ़ों को शिक्षा और ज्ञान देते हैं। यह भी गांव में रहने वाले बच्चों के सपने ही नहीं होते। उनके पास कोई दिशा नहीं होती और वे मानों बेवकूफ हों।
साहित्यकारों को शहर में गरीबी नहीं दिखाई देती। गरीबी गांव में ही होती है। गरीब होना जैसे गांव का पर्याय हो। गरीब बच्चे बुरी आदतों के शिकार हैं। उन्हें कोई शऊर नहीं आता। शहरी बच्चे साल में तीज-त्योहारों में गरीब बच्चों का भला करने पर उतारू दिखते हैं। गरीब बच्चों का बचपन मानों बेचारगी और दयनीयता बेचारगी से भरा पड़ा होता है। उन्हें इतना बेचारा दिखाया जाता है जैसे गरीब बच्चे कभी हंसते ही न हों। खेलते ही न हों। उनके पास मानों हंसने का भी अभाव हो। और तो और वे मन से कपटी होते हैं। वह हमेशा चोरी-चकारी में लीन रहते हैं। मानो शहर में होने वाले अपराध भी गरीब ही करते हैं। दीवाली, ईद और यहां तक क्रिसमस के त्योहारों में सम्पन्न परिवार के बच्चे गरीब बच्चों की मदद करने गांव में चले आते हैं। एहसान जताते भाव।
कहानियों में पशु-पक्षियों में ऐसे मानवीकरण दर्शाए जाते हैं जो हजम ही नहीं होते। जंगल के जानवरों को शहरी जानवर आकर समझाता है। सिखाता है। हद है! जबकि शायद यह अधिक सच जान पड़ता है कि अभाव में पले बच्चों में अधिकतर मानवीय संवेग दिखाई पड़ते हैं। मूल्यों की उनमें कमी नहीं होती। वे अभाव में ही प्रभाव रखते हैं। सामूहिकता, सहयोग, भाईचारा और अपनत्व का भाव उनकी जरूरत होती है। यही कारण है कि वह उनके रोजमर्रा के जीवन में अधिक दिखाई देते भी हैं।
कई बाल पत्रिकाओं में ऐसी कहानियों की भरमार है, जहां गर्मियों की छुट्टियों में शहर से गांव आए बच्चे गांव के बच्चों को ज्ञान बघारते मिलते हैं। बहुत कम कहानियां ऐसी हैं जो गरीब और उनके अभाव को मानवीय मूल्यों के साथ ईमानदारी से चित्रित करती हैं। हालांकि मेरा ये मानना है कि एक धनाढ्य परिवार का बच्चा भी संवेदनशील हो सकता है। वह दिल से बिना स्वार्थ के गरीब बच्चों की मदद भी कर सकता है। लेकिन आंकड़े, अनुभव और अनुपात के आधार पर अध्ययन करें तो पाते हैं कि जो चित्रण गरीब, मासूम, असहाय, अल्पसंख्यक, दलित बच्चों की कहानियों में दिखाई देता है उसमें सवर्ण-ठकुराहत भरा दंभ अधिक दिखाई पड़ता है।
बच्चों के नाम भी हमें पढ़ने को ऐसे मिलेंगे मानों नाम से ही पात्र का भान अच्छे और खराब का हो जाए। हास्यास्पद बात यह भी है कि कहानियों में सभी पात्रों के शानदार नाम होंगे। लेकिन काम वाली और उसके बच्चों के नाम नहीं होंगे। अखबार वाला, बर्तन वाली, दुकानदार, नाई, डाकिया, भिखारी, नौकर से अतिश्री कर ली जाती है। जैसे इनके नाम ही नहीं होते। अब आप कहेंगे कि समाज में भी तो ये संज्ञाओं से पुकारे जाते हैं। पर क्या हम ऐसा पक्के तौर पर कह सकते हैं कि कोई भी रोजमर्रा के जीवन में इन कामगारों को इनके नाम से नहीं पुकारते होंगे। होटलों में क्या कोई ऐसा ग्राहक न जाता होगा जो वहां नौकरों को ऐ। ओ छोटू के अलावा इशारे से बुलाकर पहले नाम पूछ लेता होगा? ये भाव हमारी कहानियों का हिस्सा क्यों नहीं होते?
कहानियों का आनंद लेते हुए कई बार बेमज़ा देने वाले प्रसंग मुझसे टकाराते हैं। मसलन चोरी करना, दंगा करना, शैतानी करना गरीब बच्चे जन्म से लिखा कर लाते हैं। ज्ञान और अच्छी बातें जैसे अमीर बच्चों की बपौती है। त्योहारों को हिन्दू और मुसलमान के त्योहार बताने वाली कहानियां अटी पड़ी हैं। क्रिसमस से जुड़ी कहानियों में आपको अलबर्ट, जाॅन, स्टीया जैसे पात्र ही पढ़ने को मिलेंगे। समरसता जगाता उदाहरण ढूंढें नहीं मिलता। ईद के प्रसंग से जुड़ी कहानियों में आपको शर्मा, पाण्डेय नहीं मिलेंगे। वहां आजम खान, तलीफ ही मिलेंगे। क्यों भाई? इन त्योहारों को आपने धर्म के आधार पर काहे बांट लिया? ये सब क्या है?
ऐसी कहानियों की भरमार है जो बालमन को छूती हैं लेकिन वहां जात-पांत, अमीर-गरीब के साथ प्रसंग खास सोच के साथ रेखांकित होते हैं। गरीब बच्चों को भोंदू मानना कहां तक उचित है। जबकि शायद सचाई यह है कि गरीब बच्चे और गांव के बच्चे मौसमों के बारे में, पेड़-पौधों के बारे में, तीज-त्योहारों के बारे में अधिक संवेदनशील होते हैं। गरीब बच्चों के पास भले ही सुपर मार्केट जाने, माॅल जाने के लिए रुपए न हों। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि वे रुपए का मोल न जानते हों। खरीदारी ही न करते हों। वे रेल, जहाज में न बैठे हों, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि वे यात्रा करते ही नहीं। यात्रा का आनंद लेना उनके शब्दकोश में है ही नहीं।
गरीबी का उपहास उड़ाने से बेहतर होगा कि गांव को हमारी कहानियों में गहनता से आना चाहिए। गरीब की ज़िंदगी में जो मस्ती और उल्लास है। खुशी के क्षण हैं। उनके बचपन में जो मस्ती है, उसे हमारी कहानी में उभारा जाए।
बताता चलूं कि मेरा मंतव्य कतई शहरी और धनाढय बच्चों को बदमाश बताना नहीं है। लेकिन सचाई यह भी है कि जिन बच्चों के पास कपड़े बदलने के कई विकल्प होते हैं। तीन-तीन पेंसिलें, चार-चार जोड़ी जूते एक साथ पहनने को होते हैं। उनकी थाली में कई तरह का भोजन होता है। ये एक छोटा हिस्सा हैं। इस छोटे हिस्से के बनिस्पत वे बच्चे जिनके पास घर में पहनने के लिए एक जोड़ी कपड़ा और बाजार आदि जाने के लिए एक जोड़ी ही दूसरा कपड़ा, लिखने के लिए एक मात्र छोटी हो चुकी पेंसिल है। पहनने के लिए एक जोड़ी जूता ही है। ऐसा हिस्सा अधिक बच्चों का है। यह बड़ा हिस्सा शायद रख-रखाव,सलीके से चीज़ों को रखने और दूसरों की संभाल के भाव को अच्छे से महसूस करते हैं।
मेरा ऐसा सोचना सही है। यह मेरा कहना कतई नहीं है। लेकिन मित्रों जाने-अनजाने में कई कहानियां जो हम पढ़ते हैं ऐसा लगता है कि वह मदद के भाव को स्थापित नहीं करतीं। वह तो भीख और अहसान जताने के भाव को रेखांकित करती है। ऐसे भाव जो भीख देने जैसे लगते हैं। दया जैसे भाव हावी हो जाते हैं। एक था रामू। रामू अमीर था। एक था श्यामू। वह बहुत गरीब था। यह पहले ही स्थापित करते हुए मुझे जो कहानियां पढ़ने को मिलती है, मैं उनमें आनंद नहीं ले पाता। और यकीनन उनमें अधिकतर कहानियां आदर्शवाद की भेंट चढ़ जाती हैं।

मनोहर चमोली मनु

कितना अच्छा हो कि कहानियों में ऐसे पात्र भी आएं जो गरीबों की जरूरतमंदों की मदद करते हुए पाठकों को तो दिखाई दें लेकिन जिनकी मदद की जा रही है उन्हें पता ही न चले। कहानियों में कई बार ऐसा लगता है कि मदद करना, सहयोग करना, किसी के काम आना जलसा बुलाकर ही किया जा सकता है। तब यह दूसरा ही मामला हो जाता है।
अनपढ़ कौन है? वही तो जो मात्र लिखी हुई इबारत को पढ़ नहीं पाता। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि वह बेवकूह है। अज्ञानी है। नासमझ है। वहीं गंवार कौन? जो गांव में रहता है वह गंवार हुआ। लेकिन गंवार का मायने यह मान लिए गए हैं जो जाहिल है वही गंवार है। जो भुस्स है वह गंवार है। शहर में रहने वाला शहरी और गांव में रहने वाला गंवार या गंवई। तो किसी को गंवार कहने से पहले हमें समझ लेना होगा कि हम गंवार किन संदर्भों में कह रहे हैं। एक गांव का आदमी शहर में आकर भी रह सकता है। एक शहरी शेष जीवन गांव में भी बिता सकता है।
बहरहाल, आज भी हमारे समाज में ऐसे कई हैं जो गरीब बच्चों की, गरीब परिवारों की खूब मदद करते हैं। लेकिन गुप्त रूप से। वह उसका ढिंढोरा नहीं पीटते। हमारी कहानियों में भी ये मानवीय मूल्य और संवेग आएं। जरूर आए लेकिन दूसरों पर अहसान जताने के लिए न आए। ऐसे आएं जैसे हवा का बहना जरूरी है। सूरज का रोशनी बिखेरना जरूरी है। साहित्यकारों को समझना होगा कि पाठक भी सुसंस्कृत हो सकते हैं और साहित्यकार भी। पाठक भी साहित्यकार के साहित्य की समझ रख सकते हैं और नहीं भी। लेकिन पाठकों को कमतर आंकना ठीक नहीं। और हां, यहां तक पढ़ा है तो आपका कुछ कहना भी जरूरी है। कहेंगे न? कुछ तो कहेंगे। ॰॰॰
-मनोहर चमोली मनु’,
भितांई,पोस्ट-23,निकट डिप्टी धारा, पौड़ी 246001 उत्तराखण्ड।

सम्पर्कः 09412158688 
व्हाट्स एप-07579111144

Tuesday 28 March 2017

बाल साहित्य में गरीब बच्चों का चित्रण



साहित्य सबके हित को साधता है। परंतु परेशानी यह है कि इसके द्वारा हित को साधने वाला लेखक किस मनोवृत्ति में है, उस पर यह निर्भर करता है।
प्राचीन काल से ही आमतौर पर गरीब हित साधने के काम आता रहा है। यही हाल गरीब बच्चों का बाल साहित्य में है। जो गांव का गरीब बच्चा है, वह पाठशाला नहीं जाता, मास्टर जी से मार खाता है, जमींदार के बेटे उसका मजाक उडाते हैं। वह ढोर डंगर चराने का काम करता है। वह अपनी मेहनत से आगे नहीं बढ़ता। उसे आगे बढ़ाने के लिए या तो कोई जादूगर जादूगरी करता है, या फिर परी या परी रानी आकर उसके दुःख को दूर करती है।
ऐसा क्यों होता है? इस प्रश्न का उत्तर लिखने वाले के स्वभाव में छिपा है। कहानी है तो खत्म करनी पड़ेगी। खत्म करने का सबसे आसान तरीका है सुपर नेचुरल पावर का सहारा लेना। पर इसमें भी परेशानी यह है कि अलौकिक शक्ति पाकर भी ये गरीब अपना दिमाग नहीं लगाते और नहीं चाहते कि वे अपने बल पर दुष्ट पर विजय प्राप्त करे।


आजकल जो कहानियां आती हैं, उनके केंद्र में शहरों के बच्चे ज्यादे होते हैं। उनकी कहानियों में भी जो गरीब बच्चा या बच्ची है, वह उपहास का पात्र है। वह पढ़ने में अमीर से ज्यादा तेज होगा पर उसका कक्षा में मजाक उड़ाया जाएगा। अंत में वह कुछ ऐसा करेगा कि अमीर उसके दोस्त बन जाएंगे। यहाँ भी लेखक के मन की कुण्ठा बाहर आती है। उसके मन के किसी कोने में यह बात घर किए रहती है कि उसे अमीर के साथ  रहना है, उसके बिना उसका कल्याण नहीं है। क्यों नहीं ऐसी कहानियों के अंत में गरीब के बच्चे के संघर्ष की जीत होती है?
कुछ कहानियां ऐसी भी होती हैं, जिनके केंद्र में गरीब बच्चे और गरीबी रहती है। इन कहानियों के पात्र आमतौर पर गरीब ही रहते है। पर ऐसी कहानियों के अंत में अमीर का प्रवेश होता है और वह उस बच्चे के सारे दुखों को हर लेता है।
कहानियों के केंद्र से गरीब बच्चों के गायब होने का एक अन्य कारण भी है।
आज जो भी लिखता है, उसकी दिली इच्छा होती है कि उसका लिखा कहीं न कहीं छपें। अधिकांश बड़े प्रकाशक अपनी पत्रिकाओं में गरीबी और गरीब को स्थान देने से परहेज करने लगे हैं। उन्हें लगता है एक गरीब तो उनकी पत्रिका शायद ही खरीदेगा। ऐसे में वह अमीर खरीदार को केंद्र में रखकर रचनाएं छापता है। आप किसी भी पत्रिका में डिज्नीलैंड की सैर की कहानी या फोटो फ़ीचर तो पा जायेंगे, पर किसी में यह फीचर नहीं होगा कि 'गांव की सैर'  या 'गांव के तालाब' या 'गांवों की जिंदगी'। इसका कारण यह है कि इन फीचर्स को अमीर बच्चे नहीं देखना चाहेंगे। उनके सपना तो डिज्नीलैंड का सैर है।
आज भी ऐसे लेखक हैं जिनकी कहानियों के केंद्र में गरीब बच्चे और उनका जीवन है। डॉ प्रकाश मनु जी की कहानियों के केंद्र में आम बच्चे होते है। उनके पात्रों के नाम भी आज भी गवई होते हैं। ऐसे और भी लेखक हैं।

आज जरुरत है कि कहानियों के पात्रों का वर्गीकरण न किया जाय। जो गरीब बच्चा है, वह जीत अपने संघर्ष से प्राप्त करे। और उसका संघर्ष तर्क सम्मत हो। उसकी कहानी लोगों को प्रेरित कर सके।

अनिल जायसवाल  29-3-17
मोबाइल 9810556533

बाल साहित्य के लिए संकट का समय

बाल साहित्य के लिए संकट का समय



बाल पत्रिका में काम करने के कारण पिछले करीब 20 वर्षों से मैं बाल साहित्य के जुड़ा हूं। 20 वर्षों में पूरी पीढ़ी बदल जाती है। लिखने वाले बदल जाते हैं, पढ़ने वाले बदल जाते हैं। यहां तक कि बाल साहित्य को लोगों तक पहुंचाने वाले बदल जाते हैं। पिछले 20 वर्षों में दुनिया बदली है, लोगों का देखने का नजरिया बदला है और लोगों के साथ जुड़े बच्चे बदले हैं। बच्चों की प्राथमिकताएं बदली हैं।


आज बाल पत्रिकाओं की दृष्टि से देखें तो यह संकट का समय दिखता है। पहले हर बड़े प्रकाशन संस्थान की अपनी बाल पत्रिकाएं होती थीं और ये संस्थान अपने अन्य प्रकाशन की तरह बाल पत्रिकाओं को भी पूरा सम्मान देती थीं। जैसे टाइम्स आफ इंडिया की पराग, हिन्दुस्तान टाइम्स की नंदन, दिल्ली प्रेस की चंपक, चंदामामा, राजस्थान प्रत्रिका की बालहंस, प्रकाशन विभाग की बाल भारती और दीवान पब्लिकेशंस की नन्हे सम्राट और एकलव्य की चकमक। इनमें चंदामामा और पराग को छोड़कर बाकी अब भी निकल रही हैं। ये अलग बात है कि पाठकों की कमी से सभी जूझ रहे हैं। जब पाठक कम होंगे, तो पत्रिकाओं की छपाई कम होगी। छपाई कम होगी, तो विज्ञापन पर असर पड़ेगा और विज्ञापन कम मिलने से पत्रिका महंगी छपेगी। पत्रिका महंगी छपेंगी तो महंगी बिकेंगी। महंगी बिकेंगी तो जो इनके पाठक बचे हैं, वे ज्यादा कीमत देखकर खरीदने से परहेज कर सकते हैं। इस चक्र को देखकर हम कह सकते हैं कि सच में यह बाल पत्रिकाओं के लिए संकट काल है और इसे संकट से पत्रिकाओं को निकालने के लिए कुछ अतिरिक्त प्रयास की जरूरत है।
आजकल देखने में आ रहा है कि बहुत सी बाल पत्रिकाएं निजी प्रयासों से निकल रही हैं। सरकारी सहायता प्राप्त पत्रिकाएं भी बढ़ रही हैं। पहले बाल पत्रिकाएं, संस्थाएं निकालती थी पर अब इस पुण्य कार्य में निजी लोग भी लगे हुए हैं। कुछ नाम हैं-बाल वाटिका, बाल प्रभा, बाल प्रहरी, बालमन, आदि। पर, यहीं एक परेशानी खड़ी हो जाती है। अपने निजी प्रयास से पत्रिकाएं निकालने वाले कहते हैं कि उनके पास संसाधन तो हैं ही नहीं। वे तो लोगों के लिए, बच्चों के लिए, या कहिए बाल साहित्य की सेवा के लिए पत्रिका का प्रकाशन कर रहे हैं। सीमित संसाधन के कारण वे लेखकों को पारिश्रमिक नहीं दे सकते। जैसे ही यह वाक्य आता है, मतभेद की शुरुआत हो जाती है। लेखक कहता है, पत्रिका निकालने के लिए जो भी खर्च होता है, उसे ये निजी प्रकाशक करते हैं। उनका हाथ खाली तब होता है, जब उन्हें लेखकों को उनका हक देना पड़ता है।
यहां मैं अपनी बात कहूं, तो पहले मैं भी इन निजी प्रयास वाली पत्रिकाओं का विरोधी था। मुझे लगता था कि ये पत्रिकाएं सच में बहाना बनाती हैं। कई बाल साहित्यकारों से मेंरी बात हुई। उन्होंने बताया कि इसके विरोध में वे इन पत्रिकाओं को अब अपनी रचना नहीं देते। कुछ ने कहा कि वे अपनी छपी-छपाई रचना भेज देते हैं क्योंकि संबंध क्यों खराब करना। कुछ लेखक ऐसे हैं, जो प्यार मोहब्बत या कहिए अपने मन से इन पत्रिकाओं से जुड़े हैं वह भी बिना पारिश्रमिक लिए।
अब ऐसा होगा तो ये निजी पत्रिकाएं कहां से अपने लिए सामग्री लाएंगी ? अंत में होगा यही कि ठगे पाठक ही जाएंगे। हो सकता है, उन्हें पुरानी कहानियां पढ़ने को मिले। हो सकता है, चलताऊं मैटर से पत्रिका के पेज भरे जाएं। नामी नामों को न पाकर हो सकता है, पाठक पत्रिका खरीदना बंद कर दे। फिर इससे घाटा अंततः बाल साहित्य को ही होगा।
ये स्व प्रयासों से निकलने वाली पत्रिकाएं मेरी नजर में एक ऐसा सेंटर है, जो बाल साहित्यकारों की नई पौध तैयार करती है। कारण यह है कि जब कोई लिखना शुरू करता है, तो उसे किसी बड़ी पत्रिका में जल्दी स्थान नहीं मिलता और न ही उनकी पुस्तकें तुरंत छपकर बाजार में आ जाती हैं। कुछ लेखक जो बहुत अच्छा लिखते हैं, उन्हें ऐसा मौका मिल जाता है, परंतु अधिकांश को ऐसा मौका नहीं मिलता। ऐसे में बिना मानदेय दिए कहानियों को छापने वाली पत्रिकाएं उनके काम आती हैं। वहां लिख-लिखकर वे निखरते हैं और बाद में बड़ी पत्रिकाओं में छपते हैं। फिर उनकी किताबें भी आती हैं। पर उन्हें सींचने का काम इन बाल पत्रिकाओं द्वारा ही होता है। और इससे अंत में भला बाल साहित्य का ही होता है क्योंकि लेखकों की नई पौध तैयार होती है, जो बाल सहित्य की भूमि की उर्वरता बढ़ाती है।
हां, यहां मैं यह भी कहना चाहूंगा कि निजी प्रयास से निकलने वाली पत्रिकाओं को चाहिए कि वह भी रचनाकारों के श्रम का सम्मान करते हुए कुछ मानदेय देने की हामी भरे। दोनों तरफ से प्रयास होगा, तो यह बाल साहित्य के लिए भी सुखद ही रहेगा।
आजकल एक चलन ज्यादा देख रहा हूं कि कुछ बाल पत्रिकाएं ऐसी हैं जो बड़े गर्व से कहती हैं कि वह बाल साहित्य चर्चा की पत्रिका भी है। ऐसी पत्रिकाओं में बाल कहानियां, कविताएं, बाल साहित्य की समस्याएं, बाल साहित्यकारों के चिंतन और उनके संस्मरण आदि को खूब स्थान मिलता है। ये पत्रिकाएं शादी-ब्याह में बुफे डिनर का तरह दिखती हैं। 10 तरह की सब्जियों की तरह दस कहानियां, 5 तरह की रोटियों की तरह 5 लेख और 10 तरह की मिठाईयों की तरह 10 लेख बाल साहित्य चिंतन पर। जैसे पार्टी में लोग सोचते रह जाते हैं कि अब क्या खाएं और क्या छोड़ें? इस चक्कर में खाने का मजा ख़राब हो जाता है और पेट भी नहीं भरता है, उसी तरह ऐसी पत्रिका को खरीदने वाले भी सोचते रह जाते हैं कि क्या पढ़ें और छोड़ दें।
अधिकांश बाल पत्रिकाओं के साथ यही समस्या है। वे यही तय नहीं कर पातीं कि उनका पाठक वर्ग क्या है। किसी भी पत्रिका के लिए जरूरी है कि वह अपने लिए पाठक वर्ग तय करे। इसका कारण यह है कि 6 से 10 साल के बच्चे को जो पसंद आयेगा, वो 11 से 14 साल के बच्चों को शायद अच्छा न लगे। अभी एक पत्रिका देखी -चिरैया। इसमें साफ़ लिखा है कि उसका पाठक वर्ग क्या है। मेरा मानना है कि हर पत्रिका को आगे बढ़कर बताना चाहिए कि आखिर वह किसके लिए है और उसका उद्देश्य क्या है।
अगर एक बाल पत्रिका चाहती है कि उसे सच में बाल पाठक मिलें, तो उसे खुद को बालक के लिए सीमित करना होगा। यह नहीं कि बड़े साहित्यकारों को खुद से जोड़ने के लिए बाल पत्रिका में, बाल पाठकों के पृष्ठों पर शोधपरक लेखों को छापिए। बच्चों का शोध लेखों से क्या लेना-देना? ऐसा प्रयास बाल पाठकों को बाल पत्रिकाओं से दूर ही करता है।
बात घूम-फिरकर वहीं आ जाती है कि आखिर बाल साहित्य को आगे बढ़ाने के लिए क्या किया जाए? दरअसल पिछले 10 सालों में भारत में कंप्यूटर का जाल बिछा है। मोबाइल फोन, फोन से ज्यादा टीवी की तरह हो गया है, कंप्यूटर की तरह हो गया है। फोन में आप अपने मनोरंजन के लिए फिल्में रख सकते हैं। जो जानना हो, तुरंत गूगल खोलकर पता कर सकते हैं। विदेशी कहानियां एक क्लिक पर उपलब्ध हैं। किंडर पर आप हजारों लाखों कहानियां जब चाहें, पढ़ सकते हैं। माता-पिता का बच्चों से संवाद कम हुआ है। बच्चे एकाकी भी हो रहे हैं। उनके पास एकांत है, ऐसा समय है जब वह गलत चीजों की तरफ आकर्षित हो सकते हैं। ऐसे में आखिर क्या किया जाए कि बच्चे प्यार से बाल कहानियों की किताबों को और पत्रिकाओं को अपनाएं?
सबसे पहले हमें बच्चों के मन में झांकना होगा। आखिर आज के इस हाईटेक युग में उनकी जरूरतें क्या हैं। वे क्या ऐसा पढ़ें, जो उनकी जिंदगी को बनाने में काम आए। आज का बच्चा वो भोला बच्चा नहीं है, जिसे आप कहें कि बेटा, देखो, आसामान में जो चांद है, वो तुम्हारे मामाजी जी हैं, उन्हें प्रणाम करो। और बच्चा तुरंत प्रणाम कर लेगा। नहीं, आज का बच्चा तुरंत पूछ बैठेगा वो मेरे मामा कैसे हैं।
यहां मैं अपना एक किस्सा सुनाता हूं।
हम हमेशा बच्चों को कहते हैं, आंटी जा रही हैं, टाटा करो। अंकल को बाय बोलो। ऐसे ही एक बार मैं अपने परिवार के साथ मनाली जा रहा था। हम स्टेशन पर खड़े थे। तभी एक ट्रेन चल दी। उसका अंतिम डिब्बा हमारे सामने से गुजरा, तो मैंने आदतन अपने साढ़े तीन साल के बेटे से कहा,--बेटा डिब्बे को बाय कर दो।
पता है, उसका जवाब क्या था? उसने कहा---डिब्बे को बाय क्यों करूं? उसके पास क्या हाथ है, जो वह भी मुझे बाय-बाय करेगा?
आज के बच्चे अपनी उम्र से जल्दी बड़े हो जाते हैं। तो इन बच्चों को प्यार से, आसान शब्दों में, उनके मानसिक और शारीरिक विकास के लिए जरूरी बातें कहानियों में पिरोकर सुनाने की आवश्यकता है। उन्हें फन पार्क में नहीं, प्रकृति के पास ले जाने की ज्यादा जरूरत है। उन्हें अपनी धरती, अपनी प्रकृति की बातें कहानियो में बताने की आवश्यकता है। और यह सब सादे पेजों में नहीं, ढेरों चित्रों और एक्टीविटीज के साथ उन्हें देने की आवश्यकता है। आज पत्रिकाओं को चाहिए कि वे खुद स्कूलों तक अपनी पहुंच बनाएं। बच्चों से डायरेक्ट जुड़ें। उनकी बातों को पत्रिकाओं में स्थान दे।
अंत में इतना ही और कहना चाहूंगा,-----आज के भागमभाग की जिंदगी में जब कक्षा 6 के बच्चों को इंजीनियरिंग की तैयारी के लिए फिटजी जैसे कोचिंग सेंटर में भेजा जाता है, तब उनकी जिंदगी से अपने लिए थोड़ा समय चुराना बाल पत्रिकाओं के लिए बहुत बड़ा कार्य है, और इसमें सफलता या असफलता ही बाल साहित्य के भविष्य को तय करेगा।


(अनिल जायसवाल के विचार जो उन्होंने, 25-3-17 को फगवाड़ा में कमला नेहरू कालेज में कालेज और नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा आयोजित समारोह में व्यक्त किए)         

बदलते समय में बदलता बाल साहित्य

     

      बदलते समय में बदलता बाल साहित्य




दिनांक 25 मार्च 2017 को कमला नेहरू कॉलेज फ़ॉर विमेन , फगवाड़ा के प्रांगण में राष्ट्रीय पुस्तक न्यास , नई दिल्ली, भारत और कमला नेहरू कॉलेज फ़ॉर विमेन , फगवाड़ा के तत्वावधान में बाल साहित्य पर राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया । इस विचार गोष्ठी का विषय था
' बदलते समय में बदलता बाल साहित्य '
आज पंजाब के छोटे से शहर फगवाड़ा में यहाँ के  कमल नेहरू विमेंस कॉलेज और नेशनल बुक ट्रस्ट ने मिलकर एक गोष्ठी का आयोजन किया। कॉलेज की प्रिंसिपल डॉ किरण वालिया के सहयोग से हुए इस आयोजन में कॉलेज की छात्राओं के साथ पंजाब के कॉलेज से जुड़े शिक्षक भी शामिल हुए। बदलते समय में बाल साहित्य की स्थिति और सरोकारों पर विस्तार से चर्चा की गई और वक्ताओं ने समय के साथ बदलते हुए बच्चों, उनकी बदली हुई रूचियों और उनके लिए उनकी आज की दुनिया से जुड़ी विषय-वस्तु पर गंभीरतापूर्वक विमर्श किया। विमर्श में शामिल थे- कमला नेहरू कालेज फार विमेन, फगवाड़ा की प्रधानाचार्या डा. किरण वालिया, राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत के संपादक श्री पंकज चतुर्वेदी, हिंदी और पंजाबी के जाने-माने बाल साहित्यकार दर्शन सिंह आशट, बाल पत्रिका ‘नंदन’ के श्री अनिल जायसवाल, आकाशवाणी की पूर्व निदेशक श्रीमती रश्मि खुराना, बाल साहित्यकार तथा प्रकाशक श्रीमती रेनू चौहान, साहित्यकार श्री कमलेश भारती, डा. प्रीत अरोड़ा, बलप्रीत, रूपिका भनोट और देवेन मेवाड़ी। कार्यक्रम के आरम्भ में पंकज चतुर्वेदी जी ने बॉल साहित्य की जरूरत और बच्चों की बाल साहित्य में भागीदारी पर प्रकाश डाला। प्राचार्या डॉ किरण वालिया जी कॉलेज की युवा छात्राओं से आह्वान किया कि अब उनका समय है और उनका ही दायित्व है कि वो बच्चों को साहित्य से जोड़ें और साहित्य को आगे बढाने का दायित्व संभाले। अच्छी बात यह थी कि सभी वक्ताओं की मुख्य चिंता यही थी कि साहित्य या बाल साहित्य से विमुख होते बच्चों को कैसे इससे जोड़ा जाय? सबकी अलग अलग राय थी पर लब्बो लुआब यही कि बच्चों को पुस्तकों से जोड़ने के लिए पहले माता पिता को पुस्तको से जुड़ना पड़ेगा। आकाशवाणी जालंधर की पूर्व निदेशिका डॉ रश्मि खुराना ने बच्चों से संवाद करने, उनके अस्तित्व को स्वीकार करने की जरूरत पर बल दिया। साहित्य अकादेमी पुरस्कार विजेता और बाल साहित्यकार दर्शन सिंह आशट ने पुराने लोकप्रिय कथाओं को आज के बच्चों के मन के हिसाब से ढालने की जरुरत पर बल दिया। डॉ कमलेश भारतीय, डॉ प्रीत अरोड़ा तथा अन्य वक्ताओं के चिंतन के केंद्र में भी बालक और उनका साहित्य था। रेनू चौहान जो खुद बाल साहित्यकार और अब प्रकाशक भी हैं, ने बाल साहित्य और प्रकाशन पर प्रकाश डाला। नंदन पत्रिका से जुड़े बाल साहित्यकार अनिल जायसवाल  ने बाल पत्रिका और उसकी समस्याओं के साथ निजी प्रयास से निकलने वाली पत्रिकाओं पर बात की। समारोह के अध्यक्ष प्रसिद्ध विज्ञान कथाकार और प्रकृति के कुशल चितेरे देवेन मेवाड़ी जी थे। उन्होंने अपने अनुभवों से बताया कि बाल मन को खुलने का मौका दो। उसे खिलने का मौका दो। उस पर कुछ थोपो नहीं। कार्यक्रम में उपस्थित छात्राओं ने भी सवाल पूछे और अपने विचार व्यक्त किए। बाल साहित्य पर विमर्श का यह एक सार्थक दिन रहा।
       इस अवसर पर राष्ट्रीय पुस्तक न्यास भारत द्वारा प्रकाशित श्री विष्णु प्रभाकर तथा श्री अमर गोस्वामी द्वारा लिखित  बाल कहानियों की दो पुस्तकों का विमोचन भी किया गया। इन पुस्तकों की समीक्षा डा. आशा शर्मा तथा श्रीमती सुमन लता ने की।
प्रस्तुत हैं गोष्ठी की कुछ तस्वीरे



पंकज चतुर्वेदी जी कालेज की प्राचार्या डा. किरण वालिया 
को विमोचन के लिए लाई गई पुस्तक भेंट देते हुए


डा. प्रीत अरोड़ा अपनी बात रखते हुए

उपस्थित छात्राओं के संग प्राचार्या और पंकज जी

प्राचार्या डा. किरण वालिया अनिल जायसवाल का सम्मान करते हुए

पुस्तक का विमोचन

छात्राएं गोष्ठी में भाग लेते हुईं

कमलेश भारतीय का सम्मान करते हुए प्राचार्या डा. किरण वालिया 

फुर्सत के क्षण में प्राचार्या जी के आफिस में


डा. रश्मि खुराना(बाएं) का सम्मान करते हुए प्राचार्या डा. किरण वालिया 

डा. आशा शर्मा, हिंदी विभागाध्यक्ष, कमला नेहरू कालेज, अपनी बात रखते हुए

 नेशनल बुक ट्रस्ट के स्टाल पर छात्राएं

 डा. दर्शन सिंह आशट  का सम्मान करते हुए प्राचार्या डा. किरण वालिया



                                         समारोह के अध्यक्ष देवेन मेवाड़ी अपनी बात रखते हुए


लेखिका और प्रकाशक  रेनू चैहान 


अनिल जायसवाल, डा. दर्शन सिंह आशट, देवेन मेवाड़ी और रेनू चौहान

कार्यक्रम के उपरांत कालेज प्रांगण में फुर्सत के क्षणों में


अखबारों में कार्यक्रम की रपट


















Tuesday 30 October 2012

ओमप्रकाश कश्यप

ओमप्रकाश कश्यप
(बाल साहित्यकार)

ओमप्रकाश कश्यप पर्दे के पीछे काम करने में विश्वास रखते हैं। उनका लेखन बहु-बिध है। बालसाहित्य को समृद्ध करने में भी उनकी लेखनी पीछे नहीं है। सरकारी विभाग में नौकरी करते हुए वे अपने अंदर के मनुष्य एवं रचनाकार को नई ऊर्जा देते रहते हैं। साहित्य-लेखन उनका कर्म  है , या  यों कहिये धर्म  है। 
ओमप्रकाश कश्यप का जन्म 15 जनवरी 1959 को जिला बुलंदशहर के एक गांव बारौली-वासदेवपुर में हुआ। गांव की मिट्टी में, खेत-खलिहानों के बीच वे पले-बढ़े। अलाव किनारे किस्सा-कहानी सुनकर गुनना सीखा। सो भारतीय संस्कृति मन में रची-बसी है।
उनका परिवार साधारण था। फिर भी गांव की जो दशा थी, उसमें ठीक-ठाक, खाता-पीता। पिता भगवत प्रसाद दुकान चलाते थे। मां नत्थो देवी घर का काम देखतीं। ओमप्रकाश कश्यप के पिता किशोरावस्था में ही अपने पिता का साया सिर से उठ जाने पर जिले के ही सिकंद्राबाद कस्बे को छोड़,ननिहाल बारौली में आ बसे थे। गांव में कोई उनका नाना था, कोई मामा। दुकान पर औरतें सौदा लेने आएं तो नानी या माईं, पुरुष आएं तो नाना या मामा। सबका मान रखते और मान पाते भी। सुबह पांच बजे उठकर दुकान खोल लेना। फिर रात के नौ बजे तक तख्त पर जमे रहना। मुंह-अंधेरे दुकान की सफाई शुरू करते तो राधेश्याम कथावाचक की रामायण ऊंचे स्वर में गाते।  बालक ओमप्रकाश की आंखें खुल जातीं। चारपाई पर पड़े-पड़े देर तक वह इस संगीत-लहरी का आनंद लेता रहता।
पिताजी सुबह से शाम तक दुकान पर जमे रहते। खाने तक के लिए घर आने की फुर्सत नहीं। दिन और रात का भोजन दुकान पर पहुंचा दिया जाता। घर का सारा काम मां संभालती। चूल्हा-चौके से लेकर पशुओं के चारा-पानी तक। बालक ओमप्रकाश का समय दादी के सान्निध्य में कटता। छठे-छमाहे नाना घर आ जाते तो मानो मौज हो जाती। उनके पास किस्से-कहानियों का खजाना था। बच्चे उन्हें घेरे रहते। आल्हा-ऊदल, नल-दमयंती, ढोला-मारू का किस्सा शुरू होता तो महीनों तक खिंचता चला जाता। बारहमासी गुनगुनाते तो हवा मानो ठहर-सी जाती। दिन में नानाजी का हाथ थामकर गांव, खेत घूमना। शाम को उनके साथ कहानी-किस्से का आनंद लेना। वक्त कैसे हवा हो जाता, पता ही नहीं चलता था। बालक ओमप्रकाश ने पिता से परिश्रम और आचरण की पवित्रता सीखी। मां से दृढ़ निश्चय और मुश्किलों के बीच डटे रहना। दादी से प्रेमानुराग पाया तो नाना से रागात्मकता और किस्सागोई की कला।
चार भाई और एक बहन के बीच ओमप्रकाश की स्थिति मंझली संतान की थी। बहन और एक भाई उनसे बड़े थे। पिता का बचपन सिकंद्राबाद में बीता था। कुछ दिन दिल्ली में नौकरी करते हुए बिताए थे, सो पढ़ाई की उपयोगिता अच्छी तरह जानते थे। ओमप्रकाश कश्यप की आरंभिक पढ़ाई गांव की सरकारी पाठशाला में हुई। छठी कक्षा से दाखिला लिया गांव के ही ‘किसान उच्चतर माध्यमिक विद्यालय’ में। आज की बारहवीं या उस जमाने की इंटरमीडिएट करने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए सेठ गंगासागर जटिया पालिटेक्नीक, खुर्जा में भर्ती हो गए। गांव में पालिटेक्नीक में पढ़ने को ‘ओवरसियर की पढ़ाई’ कहा जाता था। नौकरी मिलने का आसान रास्ता।
ओमप्रकाश की गिनती गांव के मेधावी विद्यार्थियों में थी। परंतु आगे की पढ़ाई का रास्ता आसान न था। पिता बीमार रहने लगे थे। एक घटना ओमप्रकाश कभी नहीं भूल पाते। उनकी पढ़ाई का दूसरा वर्ष पूरा हो चुका था। छुट्टियों में पिताजी को ‘बड़े डॉक्टर’ को दिखाने बुलंदशहर गए हुए थे। पिता जी को खांसी थी। संभाल पाना मुश्किल लग रहा था। बुलंदशहर में बस से उतरने के बाद जब खांसी का तेज दौरा आया तो पिता को होठों ही होठों में बुदबुदाते सुना‘किसी तरह एक वर्ष और मिल जाए। उसके बाद चिंता नहीं।’ ओमप्रकाश 8 सिंतबर 1980 को अपना पालिटेक्नीक का डिप्लोमा लेकर गांव पहुंचे। उसके ठीक तीन दिन बाद 11 सिंतबर को पिता ने अंतिम सांस ले ली। शायद उनकी फरियाद सुनकर नियति ने मात्र एक वर्ष की मोहलत उन्हें बख्शी थी। उन दिनों डिप्लोमाधारियों को नौकरी की कमी न थी। परंतु ओमप्रकाश कश्यप का एक वर्ष परिवार को व्यवस्थित करने में निकल गया।
बाद में पांव जमाने के लिए घर छोड़ा तो पहली नौकरी साहिबाबाद में आकर की। आजकल उसे एनसीआर का नाम दिया जाता है। कारखाना बीएचइएल के लिए काम करता था। भारी-भरकम मशीनें उसमें लगी थीं। बड़े-बड़े हैमर चलते तो धूम-धड़ाम....धूम-धड़ाम, जोर का शोर होता। पुराने जमाने की खराद मशीनें। उनपर चूड़ियां काटने के लिए पाइप को घुमाया जाता तो बुढ़िया गई मशीनें मानो क्रोध से चिंघाड़ने लगतीं। गांव के शांत परिवेश से आए ओमप्रकाश के कान उस शोर से फटने लग जाते। इसलिए मौका मिलते ही वह वर्कशॉप से बाहर निकल आते। उस समय मन में यह बात समा गई कि इंजीनियरिंग क्षेत्र नौकरी के लिए भले मुफीद हो। पर ऐसा नहीं है, जिसमें मन का सुकून पाया जा सके। पढ़ाई जारी रखने का निर्णय वे गांव में ही ले चुके थे। सो प्राइवेट छात्र के रूप में पढ़ते हुए उन्होंने 1982 में स्नातक किया। उसके दो वर्ष बाद 1884 में दर्शनशास्त्र में एमए।
एमए की पढ़ाई के बाद मन हुआ पीएचडी करने का। एमएमएच महाविद्यालय में उसके लिए संपर्क भी किया। उन दिनों दर्शनशास्त्र की पुस्तकें बाजार में कम ही मिलती थीं। ओमप्रकाश कश्यप को लगा कि भारतीय दर्शन को समझने के लिए संस्कृत जरूरी है और पाश्चात्य दर्शन में पैठ बनाने के लिए अंग्रेजी। ये दोनों ही भाषाएं उनकी कमजोरी थीं। ऊपर से प्राइवेट नौकरी की भाग-दौड़। नतीजन पीएचडी का इरादा पीछे छूट गया।
डिप्लोमाधारियों के लिए घोषित पद पर दिल्ली सरकार के एक विभाग में नौकरी निकली। आवेदन किया तो डिप्लोमा और परास्नातक दोनों होने के कारण हाथों-हाथ वरीयताक्रम झटक लिया। डिप्लोमा, डिग्री, इंजीनियरिंग का लंबा अनुभव सब एक साथ काम आ गए। 
तनख्वाह प्राइवेट कंपनी में भी कम न थी। पर जीवन में स्थायित्व आया दिसंबर 1989 में सरकारी नौकरी मिलने के बाद। लिखने-पढ़ने का जुनून बचपन से था। पढ़ने की शुरुआत फुटपाथी साहित्य और पुराने अखबारों से हुई थी। पिता दुकान के लिए रद्दी लेकर आते तो बालक ओमप्रकाश उनके रविवारीय परिशिष्ट काट-छांट कर रख लेता। विशेषकर बच्चों के कॉलम बड़े मनोयोग से पढ़ता। प्रेमचंद का उपन्यास ‘दुर्गादास’,दिनमान के दर्जनों पुराने अंक रद्दी के रूप में ही पढ़े।
लेखन की शुरूआत गद्य से हुई। सस्ते उपन्यासों से प्रेरणा लेकर 1974 के आसपास पहला भावुक-सा प्रेमाख्यान लिखा था‘पारस-मणि।’ उसपर किसकी छाप थी, कहना मुश्किल। अब वह कहां है? उसकी खोज हम पाठकों को ही नहीं, स्वयं ओमप्रकाश को भी है। उसके बाद कविता, कहानी, लघुकथा,व्यंग्य और बालसाहित्य से नाता बना तो संबंध लगातार प्रगाढ़ होता गया। उन्हीं दिनों साहित्यकारों से मिलने-जुलने का सिलसिला बना। उससे अपने लिखे को परखने की दृष्टि मिली, सोचने को नए-नए आयाम। उनकी पहली पुस्तक ‘पगडंडियां’ लघुकथा संग्रह थी, जो 1995 में प्रकाशित हुई। अगली पुस्तक ‘जुग-जुग जीवौ भ्रष्टाचार’, व्यंग्य उपन्यास। उसके बाद बालसाहित्य, जीवनी, विज्ञान लेखन और वैचारिक लेखन पर कदम आगे बढ़े तो विश्वास के साथ लेखन-यात्रा आगे बढ़ने लगी।
उन दिनों गांव में छोटी उम्र में विवाह हो जाते थे। ओमप्रकाश कश्यप का विवाह फरवरी 1976 में हुआ। उस समय उनकी उम्र मात्र सतरह वर्ष थी। आज उनके परिवार में पत्नी विमलेश कश्यप हैं, दो पुत्र संदीप और प्रदीप। और हां, ओमप्रकाश जी अब दादा भी बन चुके हैं। ढाई वर्ष का पोता ईशान अपनी शरारतों और जिज्ञासाओं से उनके सामने बचपन की अबूझी गांठें खोलता जाता है। जिससे उन्हें मिलती हैं नई-नई कहानियां और ढेर सारी बालोपयोगी रचनाएं।
पोता ईशान के साथ ओमप्रकाश कश्यप

ओमप्रकाश कश्यप का लेखन केवल बच्चों तक सीमित नहीं है। बड़ों के लिए भी उन्होंने प्रचुर साहित्य लिखा है। उनकी तीस पुस्तकें छप चुकी हैं। इनमें एक दर्जन से अधिक बच्चों के लिए हैं। बालकविताओं की पुस्तक पर ‘हिंदी अकादमी’ दिल्ली से ‘बाल एवं किशोर साहित्य’ सम्मान उन्हें मिल चुका है। खुद को नास्तिक मानने वाले ओमप्रकाश कश्यप इन दिनों वैचारिक लेखन में तल्लीन हैं।

बालसाहित्य की प्रकाशित पुस्तकें

1
विजयपथ
बाल/किशोर उपन्यास
2
मिश्री का पहाड़
3
नन्ही का बटुआ
   बालकहानी संग्रह
4
सोन मछली और हरी सीप
5
कहानीवाले बाबा
6
बरगद का पेड़
7
वेद चाचा और उनके करामाती लट्टु
8
वफादारी से दिन फिरे
9
अनोखी बीबी का राष्ट्रप्रेम
10
दो राजा अलबेले
बालनाटिका
11
हलवाई की दुकान से
12
उत्सर्ग
दो बालएकांकी
13
वृक्ष हमारे जीवनदाता
बालकविता संग्रह
14
जल ही जग का जीवनदाता
15
सबके लिए स्वास्थ्य
 विविध



                                                                 -अनिल जायसवाल