Tuesday, 30 October 2012

ओमप्रकाश कश्यप

ओमप्रकाश कश्यप
(बाल साहित्यकार)

ओमप्रकाश कश्यप पर्दे के पीछे काम करने में विश्वास रखते हैं। उनका लेखन बहु-बिध है। बालसाहित्य को समृद्ध करने में भी उनकी लेखनी पीछे नहीं है। सरकारी विभाग में नौकरी करते हुए वे अपने अंदर के मनुष्य एवं रचनाकार को नई ऊर्जा देते रहते हैं। साहित्य-लेखन उनका कर्म  है , या  यों कहिये धर्म  है। 
ओमप्रकाश कश्यप का जन्म 15 जनवरी 1959 को जिला बुलंदशहर के एक गांव बारौली-वासदेवपुर में हुआ। गांव की मिट्टी में, खेत-खलिहानों के बीच वे पले-बढ़े। अलाव किनारे किस्सा-कहानी सुनकर गुनना सीखा। सो भारतीय संस्कृति मन में रची-बसी है।
उनका परिवार साधारण था। फिर भी गांव की जो दशा थी, उसमें ठीक-ठाक, खाता-पीता। पिता भगवत प्रसाद दुकान चलाते थे। मां नत्थो देवी घर का काम देखतीं। ओमप्रकाश कश्यप के पिता किशोरावस्था में ही अपने पिता का साया सिर से उठ जाने पर जिले के ही सिकंद्राबाद कस्बे को छोड़,ननिहाल बारौली में आ बसे थे। गांव में कोई उनका नाना था, कोई मामा। दुकान पर औरतें सौदा लेने आएं तो नानी या माईं, पुरुष आएं तो नाना या मामा। सबका मान रखते और मान पाते भी। सुबह पांच बजे उठकर दुकान खोल लेना। फिर रात के नौ बजे तक तख्त पर जमे रहना। मुंह-अंधेरे दुकान की सफाई शुरू करते तो राधेश्याम कथावाचक की रामायण ऊंचे स्वर में गाते।  बालक ओमप्रकाश की आंखें खुल जातीं। चारपाई पर पड़े-पड़े देर तक वह इस संगीत-लहरी का आनंद लेता रहता।
पिताजी सुबह से शाम तक दुकान पर जमे रहते। खाने तक के लिए घर आने की फुर्सत नहीं। दिन और रात का भोजन दुकान पर पहुंचा दिया जाता। घर का सारा काम मां संभालती। चूल्हा-चौके से लेकर पशुओं के चारा-पानी तक। बालक ओमप्रकाश का समय दादी के सान्निध्य में कटता। छठे-छमाहे नाना घर आ जाते तो मानो मौज हो जाती। उनके पास किस्से-कहानियों का खजाना था। बच्चे उन्हें घेरे रहते। आल्हा-ऊदल, नल-दमयंती, ढोला-मारू का किस्सा शुरू होता तो महीनों तक खिंचता चला जाता। बारहमासी गुनगुनाते तो हवा मानो ठहर-सी जाती। दिन में नानाजी का हाथ थामकर गांव, खेत घूमना। शाम को उनके साथ कहानी-किस्से का आनंद लेना। वक्त कैसे हवा हो जाता, पता ही नहीं चलता था। बालक ओमप्रकाश ने पिता से परिश्रम और आचरण की पवित्रता सीखी। मां से दृढ़ निश्चय और मुश्किलों के बीच डटे रहना। दादी से प्रेमानुराग पाया तो नाना से रागात्मकता और किस्सागोई की कला।
चार भाई और एक बहन के बीच ओमप्रकाश की स्थिति मंझली संतान की थी। बहन और एक भाई उनसे बड़े थे। पिता का बचपन सिकंद्राबाद में बीता था। कुछ दिन दिल्ली में नौकरी करते हुए बिताए थे, सो पढ़ाई की उपयोगिता अच्छी तरह जानते थे। ओमप्रकाश कश्यप की आरंभिक पढ़ाई गांव की सरकारी पाठशाला में हुई। छठी कक्षा से दाखिला लिया गांव के ही ‘किसान उच्चतर माध्यमिक विद्यालय’ में। आज की बारहवीं या उस जमाने की इंटरमीडिएट करने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए सेठ गंगासागर जटिया पालिटेक्नीक, खुर्जा में भर्ती हो गए। गांव में पालिटेक्नीक में पढ़ने को ‘ओवरसियर की पढ़ाई’ कहा जाता था। नौकरी मिलने का आसान रास्ता।
ओमप्रकाश की गिनती गांव के मेधावी विद्यार्थियों में थी। परंतु आगे की पढ़ाई का रास्ता आसान न था। पिता बीमार रहने लगे थे। एक घटना ओमप्रकाश कभी नहीं भूल पाते। उनकी पढ़ाई का दूसरा वर्ष पूरा हो चुका था। छुट्टियों में पिताजी को ‘बड़े डॉक्टर’ को दिखाने बुलंदशहर गए हुए थे। पिता जी को खांसी थी। संभाल पाना मुश्किल लग रहा था। बुलंदशहर में बस से उतरने के बाद जब खांसी का तेज दौरा आया तो पिता को होठों ही होठों में बुदबुदाते सुना‘किसी तरह एक वर्ष और मिल जाए। उसके बाद चिंता नहीं।’ ओमप्रकाश 8 सिंतबर 1980 को अपना पालिटेक्नीक का डिप्लोमा लेकर गांव पहुंचे। उसके ठीक तीन दिन बाद 11 सिंतबर को पिता ने अंतिम सांस ले ली। शायद उनकी फरियाद सुनकर नियति ने मात्र एक वर्ष की मोहलत उन्हें बख्शी थी। उन दिनों डिप्लोमाधारियों को नौकरी की कमी न थी। परंतु ओमप्रकाश कश्यप का एक वर्ष परिवार को व्यवस्थित करने में निकल गया।
बाद में पांव जमाने के लिए घर छोड़ा तो पहली नौकरी साहिबाबाद में आकर की। आजकल उसे एनसीआर का नाम दिया जाता है। कारखाना बीएचइएल के लिए काम करता था। भारी-भरकम मशीनें उसमें लगी थीं। बड़े-बड़े हैमर चलते तो धूम-धड़ाम....धूम-धड़ाम, जोर का शोर होता। पुराने जमाने की खराद मशीनें। उनपर चूड़ियां काटने के लिए पाइप को घुमाया जाता तो बुढ़िया गई मशीनें मानो क्रोध से चिंघाड़ने लगतीं। गांव के शांत परिवेश से आए ओमप्रकाश के कान उस शोर से फटने लग जाते। इसलिए मौका मिलते ही वह वर्कशॉप से बाहर निकल आते। उस समय मन में यह बात समा गई कि इंजीनियरिंग क्षेत्र नौकरी के लिए भले मुफीद हो। पर ऐसा नहीं है, जिसमें मन का सुकून पाया जा सके। पढ़ाई जारी रखने का निर्णय वे गांव में ही ले चुके थे। सो प्राइवेट छात्र के रूप में पढ़ते हुए उन्होंने 1982 में स्नातक किया। उसके दो वर्ष बाद 1884 में दर्शनशास्त्र में एमए।
एमए की पढ़ाई के बाद मन हुआ पीएचडी करने का। एमएमएच महाविद्यालय में उसके लिए संपर्क भी किया। उन दिनों दर्शनशास्त्र की पुस्तकें बाजार में कम ही मिलती थीं। ओमप्रकाश कश्यप को लगा कि भारतीय दर्शन को समझने के लिए संस्कृत जरूरी है और पाश्चात्य दर्शन में पैठ बनाने के लिए अंग्रेजी। ये दोनों ही भाषाएं उनकी कमजोरी थीं। ऊपर से प्राइवेट नौकरी की भाग-दौड़। नतीजन पीएचडी का इरादा पीछे छूट गया।
डिप्लोमाधारियों के लिए घोषित पद पर दिल्ली सरकार के एक विभाग में नौकरी निकली। आवेदन किया तो डिप्लोमा और परास्नातक दोनों होने के कारण हाथों-हाथ वरीयताक्रम झटक लिया। डिप्लोमा, डिग्री, इंजीनियरिंग का लंबा अनुभव सब एक साथ काम आ गए। 
तनख्वाह प्राइवेट कंपनी में भी कम न थी। पर जीवन में स्थायित्व आया दिसंबर 1989 में सरकारी नौकरी मिलने के बाद। लिखने-पढ़ने का जुनून बचपन से था। पढ़ने की शुरुआत फुटपाथी साहित्य और पुराने अखबारों से हुई थी। पिता दुकान के लिए रद्दी लेकर आते तो बालक ओमप्रकाश उनके रविवारीय परिशिष्ट काट-छांट कर रख लेता। विशेषकर बच्चों के कॉलम बड़े मनोयोग से पढ़ता। प्रेमचंद का उपन्यास ‘दुर्गादास’,दिनमान के दर्जनों पुराने अंक रद्दी के रूप में ही पढ़े।
लेखन की शुरूआत गद्य से हुई। सस्ते उपन्यासों से प्रेरणा लेकर 1974 के आसपास पहला भावुक-सा प्रेमाख्यान लिखा था‘पारस-मणि।’ उसपर किसकी छाप थी, कहना मुश्किल। अब वह कहां है? उसकी खोज हम पाठकों को ही नहीं, स्वयं ओमप्रकाश को भी है। उसके बाद कविता, कहानी, लघुकथा,व्यंग्य और बालसाहित्य से नाता बना तो संबंध लगातार प्रगाढ़ होता गया। उन्हीं दिनों साहित्यकारों से मिलने-जुलने का सिलसिला बना। उससे अपने लिखे को परखने की दृष्टि मिली, सोचने को नए-नए आयाम। उनकी पहली पुस्तक ‘पगडंडियां’ लघुकथा संग्रह थी, जो 1995 में प्रकाशित हुई। अगली पुस्तक ‘जुग-जुग जीवौ भ्रष्टाचार’, व्यंग्य उपन्यास। उसके बाद बालसाहित्य, जीवनी, विज्ञान लेखन और वैचारिक लेखन पर कदम आगे बढ़े तो विश्वास के साथ लेखन-यात्रा आगे बढ़ने लगी।
उन दिनों गांव में छोटी उम्र में विवाह हो जाते थे। ओमप्रकाश कश्यप का विवाह फरवरी 1976 में हुआ। उस समय उनकी उम्र मात्र सतरह वर्ष थी। आज उनके परिवार में पत्नी विमलेश कश्यप हैं, दो पुत्र संदीप और प्रदीप। और हां, ओमप्रकाश जी अब दादा भी बन चुके हैं। ढाई वर्ष का पोता ईशान अपनी शरारतों और जिज्ञासाओं से उनके सामने बचपन की अबूझी गांठें खोलता जाता है। जिससे उन्हें मिलती हैं नई-नई कहानियां और ढेर सारी बालोपयोगी रचनाएं।
पोता ईशान के साथ ओमप्रकाश कश्यप

ओमप्रकाश कश्यप का लेखन केवल बच्चों तक सीमित नहीं है। बड़ों के लिए भी उन्होंने प्रचुर साहित्य लिखा है। उनकी तीस पुस्तकें छप चुकी हैं। इनमें एक दर्जन से अधिक बच्चों के लिए हैं। बालकविताओं की पुस्तक पर ‘हिंदी अकादमी’ दिल्ली से ‘बाल एवं किशोर साहित्य’ सम्मान उन्हें मिल चुका है। खुद को नास्तिक मानने वाले ओमप्रकाश कश्यप इन दिनों वैचारिक लेखन में तल्लीन हैं।

बालसाहित्य की प्रकाशित पुस्तकें

1
विजयपथ
बाल/किशोर उपन्यास
2
मिश्री का पहाड़
3
नन्ही का बटुआ
   बालकहानी संग्रह
4
सोन मछली और हरी सीप
5
कहानीवाले बाबा
6
बरगद का पेड़
7
वेद चाचा और उनके करामाती लट्टु
8
वफादारी से दिन फिरे
9
अनोखी बीबी का राष्ट्रप्रेम
10
दो राजा अलबेले
बालनाटिका
11
हलवाई की दुकान से
12
उत्सर्ग
दो बालएकांकी
13
वृक्ष हमारे जीवनदाता
बालकविता संग्रह
14
जल ही जग का जीवनदाता
15
सबके लिए स्वास्थ्य
 विविध



                                                                 -अनिल जायसवाल

Friday, 26 October 2012

देवेंद्र मेवाड़ी बाल साहित्यकार


देवेंद्र मेवाड़ी
(बाल साहित्यकार)

(विज्ञान संबधी विषयों के विशेषज्ञ)


हँसते खिलखिलाते देवेन्द्र मेवाड़ी

बच्चों के लिए लिखना आसान नहीं। खासकर उनके लिए वैज्ञानिक कथाएं लिखना या उनका विज्ञान से साक्षात्कार कराना और कठिन कार्य है। पर इस काम को क्रियाशील तरीके से बात-बात में या हंसते-हंसाते बच्चों को समझाना हो, तो देवेंद्र मेवाड़ी जैसे साहित्यकार कम ही नजर आते हैं।
देवेंद्र मेवाड़ी का जन्म 7 मार्च 1944 को उत्तराखंड के नैनीताल से आगे कालाआगर गांव में हुआ। उनके पिता श्री किशन सिंह मेवाड़ी एक किसान और पशुपालक थे। मां तुलसी देवी भी घर के साथ-साथ खेती का काम भी करती थीं। देवेंद्र तीन भाई हैं और उनकी एक बहन हैं।
चूकि कालाआगर गांव ठंडे इलाके में था, अत: उनके परिवार वाले दो गांवों में बसे थे। गरमी के दिनों में तो वे कालाआगर में रहते थे। पर जैसे ही ठंड शुरू होती थी, उनका परिवार माल-भाबर के गांव ककोड़ चला जाता था, जो पहाड़ के ही गरम इलाके में था। इस तरह वह छह महीने ऊंचे पहाड़ पर रहते थे, तो छह महीने गरम इलाके वाले दूसरे गांव में। इस तरह बचपन से ही उनका प्रकृति से परिचय हो गया था।
देवेंद्र मेवाड़ी के माता-पिता तो स्कूल नहीं जा पाए थे, पर उनका सपना था कि उनका बेटा स्कूल में जरूर पढ़े। थोड़े बड़े हुए, तो देवेंद्र मेवाड़ी गांव की प्राइमरी पाठशाला में जाने लगे। यह आपको अजीब लगेगा, पर यह सच है कि देवेंद्र मेवाड़ी बचपन में दो पाठशालाओं में पढ़ते थे। यानी गरमियों में वह पहाड़ के गांव कालाआगर में पढ़ते थे और सर्दियों में माल-भाबर की जंगल वाली पाठशाला में। कहने को तो यह पाठशाला थी, परंतु वह तो बच्चों को प्रकृति से मिलाने का एक जरिया थी। वहीं उनका जंगल के जीव जंतुओं से परिचय शुरू हुआ। उनके गांव के आसपास घने जंगल थे।  ऐसा जंगल जिसमें बाघ, तंदुआ, भालू और बारहसिंघे जैसे जानवरों का बसेरा था। अनगिनत रंग-बिरंगे पक्षियों को वहां निहारा जा सकता था। वहीं देवेंद्र मेवाड़ी ने चिडिय़ों की चहचहाहट को समझना शुरू किया, बादलों को बनते देखा, बनकर लोगों और खेतों पर बरसते देखा। बीजों को उगते और फसलों को पनपते देखकर, जो जिज्ञासाएं उनके मन में आती थी, उसे उनके अध्यापक दूर करते थे। तभी उन्होंने ठान लिया था कि वह भी बड़े होकर बालकों के मन में प्रकृति को लेकर उत्पन्न होने वाली उत्कंठाओं को दूर करेंगे। यहीं  देवेंद्र मेवाड़ी  ने ककोड़ की जंगल वाली पाठशाला में पढ़ते समय पहली बार साक्षात जंगल के जांबाज बाघ को देखा था,जो अपनी मदमस्त चाल से चलता हुआ जंगल से निकलकर उनके स्कूल की सामने वाली पहाड़ी तक बच्चों को दर्शन देने आ पहुंचा था।
पांचवीं तक प्रकृति की पाठशाला में पढ़ाई करने के बाद देवेंद्र मेवाड़ी दूसरे गांव के स्कूल में पढऩे चले गए। वहीं जब वह छठी कक्षा में थे, तो मां चल बसीं। पर उनकी अंतिम इच्छा थी कि उनका बेटा देवेंद्र खूब पढ़े-लिखे। मां की इच्छा का देवेंद्र ने खूब ध्यान रखा और गांव वाले स्कूल से इंटर की परीक्षा पास की। फिर आगे की पढ़ाई के लिए नैनीताल चले गए। वहां से उन्होंने अपने मन के अनुरूप वनस्पति विज्ञान में  एम.एससी. किया। फिर अपने भावों को पाठकों तक पहुंचाने के लिए हिंदी में भी एमए.की डिग्री ली। बाद में राजस्थान विश्वविद्यालय से उन्होंने पत्रकारिता में पीजी डिप्लोमा भी लिया।

युवा  देवेन्द्र  

प्रकृति के चितेरे देवेंद्र मेवाड़ी की बीस साल की उम्र में ही पहली कहानी 1964 में युवक मासिक, आगरा में प्रकाशित हुई। उन्होंने पहला लेख 1965 में विज्ञान परिषद, प्रयाग के विज्ञान मासिक में लिखा। तब से, जो उनकी लेखनी ने अपने पाठकों को तृप्त करने का कार्य शुरु किया, वह आज भी और निखरकर पूरे शबाब पर है।
देवेंद्र मेवाड़ी ने आजीविका के लिए आरंभ में अनुसंधान कार्य किए,तेरह वर्ष तक पंतनगर कृषि विश्वविद्यालय में किसानों की पत्रिका 'किसान भारती' का संपादन किया, तो करीब बाईस साल तक पंजाब नेशनल बैंक में जनसंपर्क के वरिष्ठ अधिकारी के रूप में भी काम किया। परंतु बैंक की नौकरी भी उनके अंदर के लेखक को कैद न कर सकी और वह एक के बाद एक बच्चों के लिए लेख और कहानियां लिखते चले गए।
अब नौकरी से अवकाश प्राप्ति के बाद वह पूर्णकालिक लेखक हैं और बच्चों के लिए जोर-शोर से लिख रहे हैं।

शायद लिखने की तैयारी है 

देवेंद्र मेवाड़ी की मुख्य कृतियां विज्ञान से संबंधित हैं। बच्चों तक अपनी बात पहुंचाने के लिए उन्होंने एक किरदार या यों कहे, एक सूत्रधार को जन्म दिया है, जिसका नाम है देवीदा। देवीदा बच्चों के दोस्त हैं। वह बच्चों से घुल-मिलकर उन्हीं की भाषा में बात करते हैं और हंसते-हंसाते उनकी विज्ञान से जुड़ी समस्याओं को दूर करते देते हैं या समझा देते हैं।
देवेंद्र के रचना संसार में बच्चों की उपस्थिति अनिवार्य हैं। वह कहते भी हैं—''मैं जब भी बच्चों के लिए लिखता हूं, तो जैसे वे मेरे आसपास आ जाते हैं। मुझसे बातें करने लगते हैं। बस, उन्हें जो बताता हूं, वही बताते-बताते लेख, कहानी या किताब बन जाती है।''
देवेंद्र मेवाड़ी की पत्नी हैं लक्ष्मी मेवाड़ी। उनकी तीन बेटियां और एक बेटा है।

पत्नी के साथ

देवेंद्र मेवाड़ी को कई पुरस्कार भी मिले हैं। विज्ञान लेखन के लिए उन्हें राष्ट्रीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी संचार परिषद से 'राष्ट्रीय विज्ञान लोकप्रियकरण पुरस्कार', दो बार सूचना और प्रसारण मंत्रालय  से 'भारतेंदु पुरस्कार' तथा पर्यावरण एवं वन मंत्रालय का 'मेदिनी पुरस्कार' मिल चुका है। इसके अलावा उन्हें प्रतिष्ठित 'आत्माराम पुरस्कार' भी मिला है।

देवेंद्र मेवाड़ी की बच्चों के लिए पुस्तकें

1. सौर मंडल की सैर
2. विज्ञान बारहमासा
3. फसलें कहें कहानी (हिंदी और पंजाबी)
4. सूरज के आंगन में
5. विज्ञान जिनका ऋणी है (भाग-१, हिंदी और पंजाबी में)
6. विज्ञान जिनका ऋणी है (भाग-२, हिंदी और पंजाबी में)
7. पशुओं की प्यारी दुनिया

विज्ञान के जटिल विषयों को सहज भाषा में प्रस्तुत करने में सिध्ध हस्त देवेन्द्र जी ने कई पुस्तकों का अनुवाद किया है।

संपर्क सूत्र :

देवेंद्र मेवाड़ी,
सी-22, शिवभोले अपार्टमेंट्स,
प्लॉट नम्बर-20, सैक्टर-6,
द्वारका, फेस-1, नई दिल्ली-110075
फोन : 011-28080602
मोब. 0-9818346064

ई मेल 
dmewari@yahoo.com

-अनिल जायसवाल

रामगढ , उत्तराखंड में स्थित  महादेवी वर्मा संग्राहलय  में एक सम्मलेन में शिरकत करते देवेन्द्र मेवाड़ी

Wednesday, 17 October 2012

क्षमा शर्मा


क्षमा शर्मा

(प्रसिद्ध बाल साहित्यकार)



बच्चों की वरिष्ठ और प्रसिद्ध लेखिका हैं डा. क्षमा शर्मा। वैसे वह डॉक्टर हैं, साहित्य और पत्रकारिता में पी-एच डी हैं, परंतु वह अपने नाम में डा. शब्द जोडऩा पसंद नहीं करतीं।
क्षमा शर्मा का जन्म अक्तूबर 1955  में आगरा में हुआ। पिता का नाम था राम स्नेही शर्मा और मां थीं कैला दैवी। पिता रेलवे की नौकरी में थे और उनका लगातार कहीं न कहीं तबादला होता ही रहता था। मां घरेलू महिला थीं पर आज भी क्षमा शर्मा उन्हें बड़े गर्व से याद करती हैं। उनका मानना है कि आज से 50 वर्ष पहले स्त्रियों के प्रति उनका जो प्रगतिशील नजरिया था, उसका पचास प्रतिशत नजरिया भी आज के नेताओं में आ जाए तो भारतीय स्त्रियों की स्थिति और भी बेहतर हो जाए।


क्षमा शर्मा का जन्म जब हुआ था, तब उस समय जो नाटकीय घटना घटी थी, वह आज भी वह हंसते हुए सुनाती हैं। उन्हें उनके मामा जी ने बताया था कि जब उनका जन्म हुआ था, तो उसके कुछ ही घंटों के बाद वह अपने बिस्तर से गायब पाई गई थीं। जब उनकी मां ने अपना बच्चा मांगा तो हड़कम्प मच गया। क्षमा शर्मा समय से पहले पैदा होने के कारण काफी कमजोर थीं, अत: डॉक्टरों ने उनकी मां को समझाना शुरु किया कि छोड़ो उस मरियल लड़की को, हम तुम्हें हट्टे-कट्टे लड़के लाकर देते हैं। परंतु उनकी मां अड़ गईं कि जैसी भी है, मुझे मेरी लड़की ही चाहिए। मां ने डॉक्टर्स को धमकी दे दी दी कि अगर उन्हें उनकी लड़की नहीं मिली, तो वह कोर्ट में जाएंगी और डॉक्टर्स से अपनी लड़की लेकर रहेगी।
भगवान ने एेसा अवसर नहीं आने दिया। तीन दिन बाद क्षमा शर्मा को चुराकर ले जाने वाली महिला खुद अपने पति के साथ अस्पताल में आई और बच्ची को लौटा दिया। उस स्त्री को मिर्गी के दौरे पड़ते थे और मिर्गी के दौरे में ही उसने बालिका को चुरा लिया था। दौरा समाप्त होने पर जब उसने मरियल सी लड़की को अपनी गोद में देखा, तो तुरंत उसे वापस करने आ पहुंची। क्षमा शर्मा की मां को तो अपनी बेटी मिल गई, इसी की उन्हें बहुत खुशी थी। उन्होंने उस स्त्री को माफ कर दिया था। आज भी क्षमा शर्मा के रिश्तेदार उन्हें बताते हैं कि जिस समय कोर्ट की बात से मर्द घबराते थे, उस समय उनकी मां ने अपनी बेटी को पाने के लिए कोर्ट जाने की धमकी दी थी।
शायद यही कारण है कि उनकी कहानियों और उपन्यासों में स्त्री पक्ष बहुत मजबूत रहता है और बच्चों को भी खूब प्रमुखता मिलती है।
क्षमा शर्मा की प्रारंभिक पढ़ाई कन्नौज और फर्रुखाबाद में हुई। छह भाई बहनों में वह सबसे छोटी थीं। सबसे बड़े भाई कॉलेज में पढ़ाते थे और उन्ही के मार्गदर्शन में सभी भाई-बहनों ने खूब पढ़ाई की।
क्षमा शर्मा के पिता जी की असमय मौत ने उन्हें समय से पहले ही अपने पैरों पर खड़े होने के लिए मजबूर कर दिया। पढ़ाई करते करते उन्होंने नौकरी का प्रयास किया और 1977 में उन्हें हिन्दुस्तान टाइम्स की बाल पत्रिका नंदन में नौकरी मिली। उस समय वह बीए कर के एमए में पढ़ रही थीं। उस समय हिन्दुस्तान टाइम्स के उप महाप्रबंधक श्री गौरीशंकर राजहंस जी थे। उन्होंने एक लड़की की जरूरत को समझा और एक अनुभवहीन लड़की को बड़ी इज्जत से नौकरी दी। क्षमा शर्मा ने नौकरी पर रहते हुए ही एमए की पढ़ाई पूरी की। जर्नलिज्म में पीजी डिप्लोमा लेने के बाद जामिया मिलिया इसलामिया से साहित्य और पत्रकारिता में पी-एच डी भी की। उन्हें गर्व है कि उन्होंने दिल्ली के तत्कालीन तीनों विश्वविद्यालयों (दिल्ली, जवाहर लाल नेहरू और जामिया मिलिया इसलामिया) में पढ़ाई की थीं।
क्षमा शर्मा ने करीब 18 वर्ष की उम्र से लिखना शुरु किया। पहली किताब बच्चों के लिए सन 1982 में छपी- परी खरीदनी थी। उसी समय बड़ों के लिए उनकी कहानी संग्रह काला कानून भी प्रकाशित हुई।
क्षमा जी आज बाल साहित्य की सबसे वरिष्ठ लेखिकाओं में से एक हैं। वह पिछले 36 वर्षों से बच्चों के पत्रिका नंदन से जुड़ी हैं। बच्चों के मन को समझकर और उनकी जिज्ञासाओं का निदान करते-करते कहानी गढ़ देना उनकी सबसे बड़ी विशेषता है। उनके अब तक 17 बाल उपन्यास और 12 बाल कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। इसके अलावा स्त्री विषयों पर लेखन की वह विशेषज्ञ हैं । बड़ों के लिए 8 कहानी संग्रह और 4 उपन्यासों के साथ स्त्री विषयों पर भी उनकी पांच किताबें आ चुकी हैं।
क्षमा शर्मा  को प्रकृति  और जीव जंतुओं से बहुत प्यार है। कुत्ते और बिल्लियाँ कब और कैसे दोस्त बन जाते है, कोई समझ ही नहीं पता। कई बार तो लगता है जैसे वह प्रकृति की भाषा भी समझती हैं।


दूरदर्शन के लिए वह 1974 से प्रोग्राम कर रही हैं। रेडियो को लिए भी तभी से वह प्रोग्राम कर रही हैं।
पुरस्कार : सूचना और प्रसारण मंत्रालय का भारतेंदु हरिश्चंद्र पुरस्कार, हिंदी अकादमी से दो बार पुरस्कृत, बाल कल्याण संस्थान कानपुर, इंडो रूसी क्लब नई दिल्ली और सोनिया ट्रस्ट नई दिल्ली से सम्मानित।

हिंदी अकादमी से सम्मान 

क्षमा जी का विवाह डा सुधीश पचौरी से 17-8-1977 को हुआ।


सुधीश जी दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षाशास्त्री और प्रशासक हैं। वह इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के विशेषज्ञ माने जाते हैं।
क्षमा जी के दो बच्चे हैं। बड़ा पुत्र स्विट्जरलैंड में हैं और पुत्री भी नौकरी करती हैं।
प्रमुख बाल पुस्तकें


उपन्यास

1. शिब्बू पहलवान (ऑपरेशन ब्लैक बोर्ड में चुनी गई पुस्तक)
2. पन्ना धाय
3. मिट्ठू का घर
4. राजा बदल गया
5. पप्पू चला ढूंढने शेर
6. पीलू
7. होमवर्क
8. इंजन चले साथ-साथ
9. बादल की बात
10. गोपू का कछुआ
11. घर या चिडिय़ाघर
12. नाहर सिंह के कारनामे
13. एक रात जंगल में (पंजाबी में अनुवाद)
14. भाई साहब(ऊर्दू में अनुवाद)
15. मानू
16. डायनासोर की पीठ पर
17. दूसरा पाठ

कथा संग्रह
1. पानी-पानी
2. परी खरीदनी थी
3. तितली और हवा
4. इक्यावन बाल कहानियां
5. चालाकी की सजा
6. भाई की सीख
7. भेडि़ए के जूते
8. धरती है सबकी
9. फिर से गाया बुलबुल ने
10. दोना भर जलेबी
11. लालू का मोबाइल
12. बुलबुल और मुन्नू (पंजाबी और उडिय़ा में अनुवाद)



                                                        संपर्क :

क्षमा शर्मा
कार्यकारी संपादक, नंदन
हिन्दुस्तान टाइम्स हाउस
18-२0 कस्तूरबा गांधी मार्ग
नई दिल्ली-
फोन 011-66561235
ई मेल kshamasharma1@gmail.com

                                                                 —अनिल जायसवाल

पंकज चतुर्वेदी

पंकज चतुर्वेदी
(प्रसिद्ध बाल कथाकार)
 
पंकज चतुर्वेदी हिंदी के प्रसिद्ध लेखक हैं। वह बच्चों के लिए तो लिखते ही हैं, या यूं कहिए वह बाल मन के विशेषज्ञ हैं, परंतु बड़ों के लिए, खास तौर पर देश की ज्वलंत समस्याओं पर भी उनकी लेखनी का पैनापन सबको अपना बना लेने की क्षमता रखता है। शायद ही कोई अखबार हो, जिसके पृष्ठों पर पंकज की कभी न कभी नजर न आते हों।



पंकज चतुर्वेदी का जन्म 11 दिसंबर 1963 को मध्यप्रदेश के झबुआ में हुआ। उनके पिता श्री विद्यासागर चतुर्वेदी संस्कृत के प्रकांड विद्वान होने के साथ-साथ अर्थशास्त्र और अंग्रेजी में एमए थे। मां भी उस जमाने की ग्रेजुएट हैं, जब लोग अपने घर की महिलाओं को घर में बंद रखना पसंद करते थे। विद्यासागर चतुर्वेदी मध्यप्रदेश सरकार की नौकरी में थे।
चूकि परिवार पढ़ा-लिखा था, अत: पंकज चतुर्वेदी को शुरू से ही पढऩे लिखने का माहौल मिला।
रतलाम के जावरा के एम जी हाई स्कूल से पढ़ाई के बाद उन्होंने महाराजा कॉलेज छतरपुर से मैथ्स में एम. एससी किया। स्कूल कॉलेज के दिनों में एनसीसी में भी सक्रिय रहे और उन्हें इसमें 'एÓ सर्टिफिकेट हासिल है।
पंकज कॉलेज के दिनों से ही लिखने लगे थे। उनकी पहली नियुक्ति स्वामी परवानंद डिग्री कॉलेज छतरपुर (मध्यप्रदेश) में सहायक प्राध्यापक की थी। वहीं से वह डेपुटेशन पर जिला साक्षरता समिति में जिला समन्वयक के पद पर चले गए। हालाकि यह कार्य प्रौढ़ के लिए था। पर साक्षरता अभियान का मतलब ही है आरंभ से पढ़ाई की शुरुआत कराना, यानी बड़े भी पढ़ते समय किसी बच्चे की तरह ही होते हैं। पंकज जी के अनुसार शायद तभी से उनके मन में बच्चों के लिए कुछ करने की इच्छा जागी। उनका ध्यान बच्चों के लिए लिखने की ओर आकर्षित करने का श्रेय गुरबचन सिंह जी को भी जाता है जो टीकमगढ़ में बाल साहित्य केंद्र चलाते थे। उन्होंने डिग्री कॉलेज छतरपुर (मध्यप्रदेश) में गणित के एसिस्टेंट प्रोफेसर के रूप में साढ़े सात वर्षों तक अध्यापन का कार्य किया।
बच्चों से पंकज का जुड़ाव और प्रगाढ़ तब हुआ, जब वह नेशनल बुक ट्रस्ट से जुड़े। वह 5 जुलाई 1994 का दिन था, जब पंकज ने नेशनल बुक ट्रस्ट में नौकरी शुरु की। मजेदार बात यह है कि कॉलेज के दिनों का उनके अनुभव को देखते हुए यहां भी उन्हें पहले प्रौढ़ शिक्षा से ही जोड़ा गया। उनका विधिवत बाल साहित्य से जुड़ाव 1996 में हुआ जब उनकी नियुक्ति नेशनल बुक ट्रस्ट के राष्ट्रीय बाल साहित्य केंद्र में हुई। उन्होंने ही वहां पाठक मंच बुलेटिन की नींव डाली। बाल पुस्तक मेलों के आयोजन में पहल की।
आज वह नेशनल बुक ट्रस्ट में सहायक संपादक के पद पर हैं। वह पुस्तकों को बच्चों तक पहुंचाने के लिए एनबीटी द्वारा लगाए जाने वाले पुस्तक मेलों में सक्रिय भूमिका निभाते हैं।

प्रसाशक के रूप मे

नेशनल बुक ट्रस्ट में होने के कारण वह शायद पूरे देश में और विदेश में भी पुस्तक मेले के आयोजन के सिलसिले में घूम चुके हैं। बच्चों की रुचि पर उनकी अच्छी और गहरी पकड़ है। अपने काम से अलग वह लिखने को भी पर्याप्त समय देते हैं। अब तक उनकी दो दर्जन से ज्यादा बाल पुस्तकें आ चुकी हैं। वह बच्चों के लिए बड़ी और क्लिष्ट भाषा की पुस्तकों के पक्ष में नहीं हैं। उनके अनुसार बच्चों को छोटी और सार्थक पुस्तकें चाहिएं जो उनके विकास में सहायक हों।


पंकज जी की पुस्तकें (उपन्यास और कहानियां)

1. खुशी
2. मैं भी कुछ करूं
3. यह मैं हूं
4. चंदा और खरगोश
5. रिमझिम
6. बस्ते से बाहर
7. साईकिल वाले भैया
8. ठगा गया राजा
9. ग्रामीण क्षेत्रों में यातायात
10. हैंडपंप की देखभाल
11. गोबर से सोना
12. बेर का पेड़
13. हमारे उपग्रह
14. कड़वी मिठास
15. भूत धुलाई केंद्र
16. भोंदू
17. नमक की खेती
18. पालतू पशुओं की देखभाल
19. ढेर सारे दोस्त
20. दूर की दोस्ती
21. कहां गए कुत्ते के सींग
22. लो गरमी आ गई
23. पहिया
24. पहिया और अन्य कहानियां
इसके अलावा पंकज चतुर्वेदी ने बहुत सी पुस्तकों का संपादन और अनुवाद किया है।

पंकज चतुर्वेदी
सहायक संपादक
नेशनल बुक ट्रस्ट
5 नेहरू भवन, वसंत कुंज इंस्टिट्यूशनल एरिया-२
नई दिल्ली-110070
फोन (घर) 0120-4241060
फोन(आ.) 011-26707758
मोब : 0-9891928376
ईमेल: pc7001010@gmail.com
घर का पता :
यू जी-1,3/186, सेक्टर-2,
राजेंद्र नगर, साहिबाबाद,
गाजियाबाद,
उत्तरप्रदेश-201005
                                                 —अनिल जायसवाल

रमेश तैलंग

रमेश तैलंग

(प्रसिद्ध बाल कवि )



रमेश तैलंग जी को देखकर लगता नहीं कि अपने जीवन में ज्यादातर समय वह 10 से 5 तक का टाइम एक प्राइवेट कंपनी को देते रहे होंगे। आज के हिसाब से वह कंपनी के एच आर टीम में रहे। वहां काम कर रहे लोगों की समस्याओं को वह दूर करते रहे
फिर भी बच्चों के रग-रग को ध्यान में रखते हुए, उनके गाने-गुनगुनाने लायक कविताओं से हिन्दी बाल साहित्य को समृद्ध करते रहे।
रमेश तैलंग मूल रूप से मध्यप्रदेश के हैं। उनका जन्म 28 जून 1947 को मध्यप्रदेश के टीकमगढ़ में हुआ। वैसे अगर सरकारी रिकार्ड देखें, तो उनकी जन्म तिथि 2 जून 1946 है। है न अजब बात! लोग अपनी जन्मतिथि बाद की लिखाते हैं ताकि नौकरी के दो-चार साल ज्यादा मिल सके। पर यहां तो उलटी बात थी। दरअसल रमेश जी पढऩे के इतने शौकीन थे कि दसवीं कक्षा तक अपनी उम्र के हिसाब से पहले ही पहुंच गए। ऐसे में उन्हें मैट्रिक की परीक्षा देने लायक बनाने के लिए उनकी जन्मतिथि को पीछेधकेल दिया गया।
रमेश तैलंग के पिता जी का नाम था हरिकृष्ण देव। बहद कर्मठ, संघर्षशील और मिलनसार। जीवन की कई शारीरिक या मानसिक कठिनाइयां उनके आड़े आईं,परंतु उन्होंने हर अच्छे और कटु अनुभव को ईश्वर का प्रसाद ही समझा और जीवन को प्रेम से व्यतीत किया। रमेश तैलंग की माता जी का नाम है कौशल्या देवी। आज 85 वर्ष की उम्र में भी वह पूरी तरह सक्रिय हैं।
रमेश तैलंग का आरंभिक जीवन या यूं कहिए, बचपन अपने चाचा-चाची के साथ बीता। चाचा जी शहडोल में सरकारी नौकरी करते थे। वहीं रमेश तैलंग की आरंभिक पढ़ाई-लिखाई हुई। वह पढ़ाई में ठीक थे। अगर गणित से डरते थे, तो उस जमाने में अंग्रेजी पर अच्छी पकड़ होने के कारण संगी-साथियों में धाक थी। इस धाक के चक्कर में दोस्तों से दोस्ती भी होती थी, तो कभी दुश्मनी भी।
बचपन की एक घटना उन्हें याद है, जब अपनी एक आदत या शेखी के कारण उनकी जान पर बन आई थी। किसका असर था पता नहीं, पर रमेश तैलंग को चने उछालकर खाने की आदत थी, वही स्टाइल, जैसा उनके बहुत बाद फिल्म स्टार रजनीकांत को हमने करते देखा है। वह बड़े गर्व से चना उछालकर अपना मुंह खोलते थे और चना चुपचाप उनके मुंह में गिरकर उनका निवाला बन जाता था। पर एक बार दाव उलटा पड़ गया। चना उछला तो सही, पर निवाला बनने की जगह नाक में घुस गया। सांसे रुकने लगीं, तो उन्हें फटाफट डॉक्टर के पास पहुंचाया गया। जान तो बची, पर घरेलू हिंसा यानी पिटाई से वह न बच सके।
दतिया में इंटर तक पढ़ाई के बाद वह टीकमगढ़ से ही अंग्रेजी भाषा में स्नातक हुए। रमेश तैलंग जीवाजी विश्वविद्यालय, ग्वालियर से 'हिंदी के साथ-साथ 'सोशॉलजी में भी एम.ए. हैं।
उन्हीं दिनों कविता रचने का खुमार चढ़ा। मां सरस्वती की कृपा थी कि आरंभ से ही कविता के छंद या यूं कहिए, लयात्मकता से उनका बढिय़ा नाता रहा। उस समय बच्चों की सर्वश्रेष्ठ पत्रिकाओं में से एक पराग में वह छपने लगे। इससे कवि रमेश तैलंग का आत्मविश्वास बढ़ा।
1968 में रमेश तैलंग अपने पूरे परिवार के साथ दिल्ली आ गए। पिता बीमारी के कारण नौकरी छोड़ चुके थे। अत: अगली पीढ़ी ने घर चलाने की जिम्मेदारी जल्दी ही संभाल ली। पहली नौकरी एक औषधालय में की और पहला वेतन करीब 60 रुपए का था। कई छोटी-मोटी नौकरियों के बाद उन्हें 1973 में हिन्दुस्तान टाइम्स से जुडऩे का मौका मिला। उनकी चाहत पत्रकार बनने की थीपरंतु बन गए क्लर्क। पर इससे उनकी रचनात्मकता पर कोई फर्क नहीं पड़ा। पत्रकारों के बीच काम करते-करते अनेक लेखकों से जान-पहचान हुई। उनमें से कई उनके प्रगाढ़ मित्र बन गए जिनके साथ आज चार दशकों बाद भी उनकी मित्रता की बेल हरी है। सन 2001 में रमेश तैलंग ने नौकरी से अवकाश ले लिया और तब से स्वतंत्र पत्रकार और रचनाकार के रूप में सक्रिय हैं।
1966 में रमेश तैलंग का विवाह हुआ। उनके पुत्र सचिन का अपना विज्ञापन जगत से जुड़ा अपना कारोबार है। पुत्रवधू भी नौकरी करती हैं।

पत्नी  कमलेश के साथ
रमेश तैलंग की साहित्यिक जीवन का शुरुआत उनके अनुसार 1965 के आसपास का काल मान सकते हैं। तब से वह देश की तकरीबन सभी प्रमुख-पत्र-पत्रिकाओं में छप चुके हैं। हालाकि उनकी पुस्तकें देर से छपीं। 1989 में उनका पहला कविता संकलन उनका मित्रों प्रसिद्ध साहित्कार प्रकाश मनु और श्री देवेंद्र कुमार जी के साथ मिलकर आया। संकलन का नाम था—'हिन्दी के नए बालगीत।

(प्रसिद्ध साहित्कार श्री देवेंद्र कुमार और प्रकाश मनु के साथ)


रमेश तैलंग की प्रकाशित पुस्तकें
१. हिन्दी के नए बालगीत
२. उडऩ खटोले आ
३. एक चपाती और अन्य बाल कविताएं
४. कनेर के फूल
५. इक्यावन बाल गीत
६. टिन्नी जी ओ टिन्नी जी
७. लड्डू मोतीचूर के
८. मेरे प्रिय बालगीत
९. अमर प्रसिद्ध किशोर कथाएं (भाग-१ व भाग-२)

पुरस्कार
१. बाल कविता संकलन 'एक चपाती और अन्य बाल कविताएं, और 'कनेर के फूल हिन्दी अकादमी दिल्ली द्वारा पुरस्कृत।
२. सूचना और प्रसारण मंत्रालय, बारत सरकार द्वारा भारतेंदु हरिश्चंद्र पुरस्कार से सम्मानित।
इसके अलावा भारतीय बाल कल्याण संस्थान, कानपुर और इंडो रशियन सांस्कृतिक केंद्र नई दिल्ली द्वारा सम्मानित।


पुस्तक मेले में रमेश तैलंग


पता

रमेश तैलंग
सी-2 एच-1002क्लासिक रेजीडेंसी,
राज नगर एक्सटेंशन,,
गाजियाबाद
उत्तर प्रदेश
मोबाइल : 9211688748
ई मेल : rtailang@gmail.com
rameshtailang@hotmail.com

—अनिल जायसवाल

Tuesday, 16 October 2012

Pankaj Chaturvedi






                                                                          

Kshama Sharma