ओमप्रकाश कश्यप
(बाल साहित्यकार)
ओमप्रकाश कश्यप पर्दे के पीछे काम करने में विश्वास रखते हैं। उनका लेखन बहु-बिध है। बालसाहित्य को समृद्ध करने में भी उनकी लेखनी पीछे नहीं है। सरकारी विभाग में नौकरी करते हुए वे अपने अंदर के मनुष्य एवं रचनाकार को नई ऊर्जा देते रहते हैं। साहित्य-लेखन उनका कर्म है , या यों कहिये धर्म है।
ओमप्रकाश कश्यप का जन्म 15 जनवरी 1959 को जिला बुलंदशहर के एक गांव बारौली-वासदेवपुर में हुआ। गांव की मिट्टी में, खेत-खलिहानों के बीच वे पले-बढ़े। अलाव किनारे किस्सा-कहानी सुनकर गुनना सीखा। सो भारतीय संस्कृति मन में रची-बसी है।
उनका परिवार साधारण था। फिर भी गांव की जो दशा थी, उसमें ठीक-ठाक, खाता-पीता। पिता भगवत प्रसाद दुकान चलाते थे। मां नत्थो देवी घर का काम देखतीं। ओमप्रकाश कश्यप के पिता किशोरावस्था में ही अपने पिता का साया सिर से उठ जाने पर जिले के ही सिकंद्राबाद कस्बे को छोड़,ननिहाल बारौली में आ बसे थे। गांव में कोई उनका नाना था, कोई मामा। दुकान पर औरतें सौदा लेने आएं तो नानी या माईं, पुरुष आएं तो नाना या मामा। सबका मान रखते और मान पाते भी। सुबह पांच बजे उठकर दुकान खोल लेना। फिर रात के नौ बजे तक तख्त पर जमे रहना। मुंह-अंधेरे दुकान की सफाई शुरू करते तो राधेश्याम कथावाचक की रामायण ऊंचे स्वर में गाते। बालक ओमप्रकाश की आंखें खुल जातीं। चारपाई पर पड़े-पड़े देर तक वह इस संगीत-लहरी का आनंद लेता रहता।
पिताजी सुबह से शाम तक दुकान पर जमे रहते। खाने तक के लिए घर आने की फुर्सत नहीं। दिन और रात का भोजन दुकान पर पहुंचा दिया जाता। घर का सारा काम मां संभालती। चूल्हा-चौके से लेकर पशुओं के चारा-पानी तक। बालक ओमप्रकाश का समय दादी के सान्निध्य में कटता। छठे-छमाहे नाना घर आ जाते तो मानो मौज हो जाती। उनके पास किस्से-कहानियों का खजाना था। बच्चे उन्हें घेरे रहते। आल्हा-ऊदल, नल-दमयंती, ढोला-मारू का किस्सा शुरू होता तो महीनों तक खिंचता चला जाता। बारहमासी गुनगुनाते तो हवा मानो ठहर-सी जाती। दिन में नानाजी का हाथ थामकर गांव, खेत घूमना। शाम को उनके साथ कहानी-किस्से का आनंद लेना। वक्त कैसे हवा हो जाता, पता ही नहीं चलता था। बालक ओमप्रकाश ने पिता से परिश्रम और आचरण की पवित्रता सीखी। मां से दृढ़ निश्चय और मुश्किलों के बीच डटे रहना। दादी से प्रेमानुराग पाया तो नाना से रागात्मकता और किस्सागोई की कला।
चार भाई और एक बहन के बीच ओमप्रकाश की स्थिति मंझली संतान की थी। बहन और एक भाई उनसे बड़े थे। पिता का बचपन सिकंद्राबाद में बीता था। कुछ दिन दिल्ली में नौकरी करते हुए बिताए थे, सो पढ़ाई की उपयोगिता अच्छी तरह जानते थे। ओमप्रकाश कश्यप की आरंभिक पढ़ाई गांव की सरकारी पाठशाला में हुई। छठी कक्षा से दाखिला लिया गांव के ही ‘किसान उच्चतर माध्यमिक विद्यालय’ में। आज की बारहवीं या उस जमाने की इंटरमीडिएट करने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए सेठ गंगासागर जटिया पालिटेक्नीक, खुर्जा में भर्ती हो गए। गांव में पालिटेक्नीक में पढ़ने को ‘ओवरसियर की पढ़ाई’ कहा जाता था। नौकरी मिलने का आसान रास्ता।
ओमप्रकाश की गिनती गांव के मेधावी विद्यार्थियों में थी। परंतु आगे की पढ़ाई का रास्ता आसान न था। पिता बीमार रहने लगे थे। एक घटना ओमप्रकाश कभी नहीं भूल पाते। उनकी पढ़ाई का दूसरा वर्ष पूरा हो चुका था। छुट्टियों में पिताजी को ‘बड़े डॉक्टर’ को दिखाने बुलंदशहर गए हुए थे। पिता जी को खांसी थी। संभाल पाना मुश्किल लग रहा था। बुलंदशहर में बस से उतरने के बाद जब खांसी का तेज दौरा आया तो पिता को होठों ही होठों में बुदबुदाते सुना—‘किसी तरह एक वर्ष और मिल जाए। उसके बाद चिंता नहीं।’ ओमप्रकाश 8 सिंतबर 1980 को अपना पालिटेक्नीक का डिप्लोमा लेकर गांव पहुंचे। उसके ठीक तीन दिन बाद 11 सिंतबर को पिता ने अंतिम सांस ले ली। शायद उनकी फरियाद सुनकर नियति ने मात्र एक वर्ष की मोहलत उन्हें बख्शी थी। उन दिनों डिप्लोमाधारियों को नौकरी की कमी न थी। परंतु ओमप्रकाश कश्यप का एक वर्ष परिवार को व्यवस्थित करने में निकल गया।
बाद में पांव जमाने के लिए घर छोड़ा तो पहली नौकरी साहिबाबाद में आकर की। आजकल उसे एनसीआर का नाम दिया जाता है। कारखाना बीएचइएल के लिए काम करता था। भारी-भरकम मशीनें उसमें लगी थीं। बड़े-बड़े हैमर चलते तो धूम-धड़ाम....धूम-धड़ाम, जोर का शोर होता। पुराने जमाने की खराद मशीनें। उनपर चूड़ियां काटने के लिए पाइप को घुमाया जाता तो बुढ़िया गई मशीनें मानो क्रोध से चिंघाड़ने लगतीं। गांव के शांत परिवेश से आए ओमप्रकाश के कान उस शोर से फटने लग जाते। इसलिए मौका मिलते ही वह वर्कशॉप से बाहर निकल आते। उस समय मन में यह बात समा गई कि इंजीनियरिंग क्षेत्र नौकरी के लिए भले मुफीद हो। पर ऐसा नहीं है, जिसमें मन का सुकून पाया जा सके। पढ़ाई जारी रखने का निर्णय वे गांव में ही ले चुके थे। सो प्राइवेट छात्र के रूप में पढ़ते हुए उन्होंने 1982 में स्नातक किया। उसके दो वर्ष बाद 1884 में दर्शनशास्त्र में एमए।
एमए की पढ़ाई के बाद मन हुआ पीएचडी करने का। एमएमएच महाविद्यालय में उसके लिए संपर्क भी किया। उन दिनों दर्शनशास्त्र की पुस्तकें बाजार में कम ही मिलती थीं। ओमप्रकाश कश्यप को लगा कि भारतीय दर्शन को समझने के लिए संस्कृत जरूरी है और पाश्चात्य दर्शन में पैठ बनाने के लिए अंग्रेजी। ये दोनों ही भाषाएं उनकी कमजोरी थीं। ऊपर से प्राइवेट नौकरी की भाग-दौड़। नतीजन पीएचडी का इरादा पीछे छूट गया।
डिप्लोमाधारियों के लिए घोषित पद पर दिल्ली सरकार के एक विभाग में नौकरी निकली। आवेदन किया तो डिप्लोमा और परास्नातक दोनों होने के कारण हाथों-हाथ वरीयताक्रम झटक लिया। डिप्लोमा, डिग्री, इंजीनियरिंग का लंबा अनुभव सब एक साथ काम आ गए।
तनख्वाह प्राइवेट कंपनी में भी कम न थी। पर जीवन में स्थायित्व आया दिसंबर 1989 में सरकारी नौकरी मिलने के बाद। लिखने-पढ़ने का जुनून बचपन से था। पढ़ने की शुरुआत फुटपाथी साहित्य और पुराने अखबारों से हुई थी। पिता दुकान के लिए रद्दी लेकर आते तो बालक ओमप्रकाश उनके रविवारीय परिशिष्ट काट-छांट कर रख लेता। विशेषकर बच्चों के कॉलम बड़े मनोयोग से पढ़ता। प्रेमचंद का उपन्यास ‘दुर्गादास’,दिनमान के दर्जनों पुराने अंक रद्दी के रूप में ही पढ़े।
लेखन की शुरूआत गद्य से हुई। सस्ते उपन्यासों से प्रेरणा लेकर 1974 के आसपास पहला भावुक-सा प्रेमाख्यान लिखा था—‘पारस-मणि।’ उसपर किसकी छाप थी, कहना मुश्किल। अब वह कहां है? उसकी खोज हम पाठकों को ही नहीं, स्वयं ओमप्रकाश को भी है। उसके बाद कविता, कहानी, लघुकथा,व्यंग्य और बालसाहित्य से नाता बना तो संबंध लगातार प्रगाढ़ होता गया। उन्हीं दिनों साहित्यकारों से मिलने-जुलने का सिलसिला बना। उससे अपने लिखे को परखने की दृष्टि मिली, सोचने को नए-नए आयाम। उनकी पहली पुस्तक ‘पगडंडियां’ लघुकथा संग्रह थी, जो 1995 में प्रकाशित हुई। अगली पुस्तक ‘जुग-जुग जीवौ भ्रष्टाचार’, व्यंग्य उपन्यास। उसके बाद बालसाहित्य, जीवनी, विज्ञान लेखन और वैचारिक लेखन पर कदम आगे बढ़े तो विश्वास के साथ लेखन-यात्रा आगे बढ़ने लगी।
उन दिनों गांव में छोटी उम्र में विवाह हो जाते थे। ओमप्रकाश कश्यप का विवाह फरवरी 1976 में हुआ। उस समय उनकी उम्र मात्र सतरह वर्ष थी। आज उनके परिवार में पत्नी विमलेश कश्यप हैं, दो पुत्र संदीप और प्रदीप। और हां, ओमप्रकाश जी अब दादा भी बन चुके हैं। ढाई वर्ष का पोता ईशान अपनी शरारतों और जिज्ञासाओं से उनके सामने बचपन की अबूझी गांठें खोलता जाता है। जिससे उन्हें मिलती हैं नई-नई कहानियां और ढेर सारी बालोपयोगी रचनाएं।
पोता ईशान के साथ ओमप्रकाश कश्यप
ओमप्रकाश कश्यप का लेखन केवल बच्चों तक सीमित नहीं है। बड़ों के लिए भी उन्होंने प्रचुर साहित्य लिखा है। उनकी तीस पुस्तकें छप चुकी हैं। इनमें एक दर्जन से अधिक बच्चों के लिए हैं। बालकविताओं की पुस्तक पर ‘हिंदी अकादमी’ दिल्ली से ‘बाल एवं किशोर साहित्य’ सम्मान उन्हें मिल चुका है। खुद को नास्तिक मानने वाले ओमप्रकाश कश्यप इन दिनों वैचारिक लेखन में तल्लीन हैं।
बालसाहित्य की प्रकाशित पुस्तकें
1
|
विजयपथ
|
बाल/किशोर उपन्यास
|
2
|
मिश्री का पहाड़
| |
3
|
नन्ही का बटुआ
|
बालकहानी संग्रह
|
4
|
सोन मछली और हरी सीप
| |
5
|
कहानीवाले बाबा
| |
6
|
बरगद का पेड़
| |
7
|
वेद चाचा और उनके करामाती लट्टु
| |
8
|
वफादारी से दिन फिरे
| |
9
|
अनोखी बीबी का राष्ट्रप्रेम
| |
10
|
दो राजा अलबेले
|
बालनाटिका
|
11
|
हलवाई की दुकान से
| |
12
|
उत्सर्ग
|
दो बालएकांकी
|
13
|
वृक्ष हमारे जीवनदाता
|
बालकविता संग्रह
|
14
|
जल ही जग का जीवनदाता
| |
15
|
सबके लिए स्वास्थ्य
|
विविध
|
-अनिल जायसवाल